पदार्थ क्या है..तर्क संग्रह के अनुसार पदार्थ क्या है..न्याय वैशेषिक के अनुसार पदार्थ क्या है..कौन- कौन से पदार्थ हैं?
…वस्तुतः द्रव्य गुण कर्म आदि विषय, जिनका विवेचन इस ग्रन्थ में किया गया है, इन्हें ही पदार्थ कहा गया है। न्याय वैशेषिक में तत्व के स्थान पर पदार्थ का प्रयोग किया गया है।
पदार्थ का लक्षण है..” पदजन्यप्रतीतिविषयत्वं पदार्थत्वं इति व्युत्पत्या अभिधेयत्वं पदार्थसामान्यलक्षणम् “… अर्थात पद से उत्पन्न प्रतीति अर्थात .. ज्ञान के विषय को पदार्थ कहते हैं।पदार्थ अभिधेय है। अभिधेय अर्थात अभिधा का विषय, जिसका शब्दों के द्वारा विवेचन किया जा सके।
अन्नंभट्ट नें अभिधेयत्व को पदार्थ का सामान्य लक्षण माना है।प्रत्येक पदार्थ अभिधेय होता है।
क्योंकि,इस संसार में जो कुछ है उसका कुछ न कुछ नाम है,अतः वह अभिधेय है। ज्ञेय है अर्थात जानने योग्य है तथा वह प्रमेय विषयत्व है, अतः वह पदार्थ है।
अब जिज्ञासा उठती है की पद क्या है..
शक्तं, निरुपकतासंबन्धेन शक्तिविशिष्टं इति अर्थः। निरुपकता संबन्ध से शक्ति विशिष्ट को पद कहते हैं।
पदार्थ के सात भेद बताये गये हैं.. पदार्थ भेदाः सप्त….. “द्रव्य-गुण -कर्म-सामान्य-विशेष-समवाय-अभावाः सप्त पदार्थाः “।
वैशेषिक दर्शन के अनुसार…1 द्रव्य,2. गुण,3.कर्म,4. सामान्य (जाति ),5..विशेष, 6.. समवाय और 7.अभाव… ये सात पदार्थ माने गये हैं।
इन पदार्थो में द्रव्य आदि सात पदार्थ क्या हैं… क्रमशः इनका संक्षेप में वर्णन किया जा रहा है..
ऊपर बताये गये सात पदार्थों में जो पहला पदार्थ है वह द्रव्य है।
1..द्रव्य क्या है…
जिन पदार्थों में द्रव्यत्व जाति रहती है, उसे द्रव्य कहते है।ये द्रव्य संख्या में ..9 है …1.पृथ्वी 2.जल 3.तेज 4.वायु 5.आकाश 6.काल 7.दिक् 8.आत्मा और 9.मन..।
पृथव्यप्तेजोवाय्वाकाश-काल-दिगात्मा-मनांसि नवैव।
1….पृथ्वी…
- तत्र गन्धवती पृथ्वी..। सा द्विविधा.. नित्या अनित्या च।
- नित्या परमाणुरूपा अनित्या कार्य रूपा।
- पुनस्त्रिविधा शरीरिन्द्रिय विषय भेदात्। शरीरमस्मदादीनाम्। इन्द्रियं गन्धग्राहकम् घ्राणं नासाग्रवर्ति। विषयो मृत्पाषाणादि।
अर्थात नौ द्रव्यों में जिसमें गन्ध की विशेषता है, वह पृथ्वी है। यह दो प्रकार की है 1.. नित्य , 2.. अनित्य। नित्या पृथ्वी परमाणु रूप है तथा अनित्या कार्य रूप है।पुनः यह अनित्य पृथ्वी शरीर, इन्द्रिय और विषय के भेद से तीन प्रकार की है। हमारा शरीर पृथ्वी का है। पृथ्वी के गन्ध को ग्रहण करने वाली इन्द्रिय घ्राण है। यह नासिका के अग्र.. अगले भाग में रहती है। पृथ्वी का विषय मृत्तिका ( मिट्टी ) और पाषाण (पत्थर ) आदि हैं।
2…आप् (जल )..
शीतस्पर्शवत्यः आपः। ता द्विविधाः –नित्याअनित्याश्च। नित्याः परमाणुरूपाः। अनित्याः कार्यरूपाः।पुनस्त्रिविधा शरीरिन्द्रिय विषय भेदात्। शरीरं वरुणलोके। इन्द्रियं रसग्राहकम् रसनं जिह्वाग्रवर्ति। विषयः सरित्समुद्रादि।
जिसका स्पर्श शीतल हो, वह जल है। यह जल भी दो प्रकार का है नित्य और अनित्य। नित्य परमाणु रूप और अनित्य कार्य रूप है। शरीर इन्द्रिय और विषय के प्रकार से यह तीन भेद वाला है। जल का शरीर वरुण लोक में रहता है.। जल इन्द्रिय रस को ग्रहण करने वाली रसना है। यह रसना जिह्वा के अग्र भाग में रहती है। नदी और समुद्र तालाब आदि जल के विषय हैं।
3..तेज….
- उष्णस्पर्शवत्तेजः। तच्च द्विविधं — नित्यमनित्यं च।
- नित्यं परमाणुरूपं अनित्यं कार्यरूपं।
- पुनस्त्रिविधम् शरीरिन्द्रिय विषय भेदात्। शरीरमादित्यलोके प्रसिद्धम्।
- इन्द्रिय रूप ग्राहकम् चक्षुः कृष्णतराग्रवर्ति। विषयश्चतुर्विधः — भौमदिव्योदर्याकरजभेदात्। भौमं बह्न्यादिकं। अबिन्धनं दिव्यं विद्युदादि। भुक्तस्य परिनामहेतुरुदर्यम्। आकरजं सुवर्णादि।
जिस द्रव्य में उष्ण (गरम) स्पर्श रहता है, वह तेज है। इसके दो भेद हैं.. नित्य और अनित्य। नित्य तेज परमाणु स्वरूप तथा अनित्य तेज कार्य स्वरूप है। अनित्य तेज शरीर, इन्द्रिय, विषय के नाम से तीन प्रकार का है। तेज शरीर सूर्य लोक में प्रसिद्ध है। तेज इन्द्रिय.. रूप को ग्रहण करने वाली नेत्र नाम वाली है जो काली तारा वाली अर्थात आंखों की पुतली के अग्रभाग में रहती है। तेज इन्द्रिय के विषय चार हैं.. भौम , दिव्य, उदर्य तथा आकारज।
अग्निआदि भौम… भूमि में रहने वाले तेज हैं। तरल रूप ईधन वाले तेज को दिव्य तेज कहते हैं। यह विजली आदि है।
खाये गये पदार्थ के परिणाम का कारण जो तेज है वह उदर्य तेज है।
आकारज तेज..अर्थात खान से उत्पन्न तेज सुवर्ण आदि हैं..।
4.वायु..
रूपरहित स्पर्शवान्वायुः
जिसमें रूप नहीं है, स्पर्श है, वह द्रव्य वायु है। वायु को हम अपनी त्वक् अर्थात त्वचा इन्द्रिय द्वारा अनुभव कर सकते हैं,परन्तु देख नहीं सकते हैं।
वायु के भी दो भेद हैं नित्य और अनित्य। नित्य वायु परमाणु रूप तथा अनित्य वायु कार्य रूप है। शरीर , इन्द्रिय और विषय के भेद से यह पुनः तीन प्रकार का है।
वायु का शरीर वायु लोक में है। स्पर्श को ग्रहण करने वाली इन्द्रिय त्वक् (त्वचा) है। और यह संपूर्ण शरीर में रहती है। वायु का विषय वृक्ष आदि के कंपन का हेतु है। शरीर के भीतर चलने वाली वायु को प्राण कहते हैं। वह एक ही है, फिर भी प्राण ,अपान , समान, उदान,और व्यान ये उपाधि भेद हैं।
5.आकाश.. शब्दगुणमाकाश
शब्दगुणमाकाशम् तच्चैकं विभुं नित्यं च।
शब्द गुण वाले द्रव्य का नाम आकाश है। यह एक है विभु है और नित्य है। शब्द समवायिकारणत्वं आकशत्वं। अर्थात जो शब्द का समवायि कारण है वह आकाश है।
6..काल..
अतीतादिव्यवहारहेतुः कालः। स च एको विभुर्नित्यश्च।
अतीतादि अर्थात भूत, भविष्य और वर्तमान आदि के व्यवहार का निमित्त करण काल है। यह एक है, विभु है तथा नित्य है। काल किसी भी वस्तु या व्यक्ति या स्थान के भूत, वर्तमान और भविष्य के बारे में बताता है। हर जगह रहने के कारण यह विभु है तथा एक है। लौकिक जीवन या सामान्य जीवन में हम सेकेण्ड मिनट, घण्टा, सप्ताह , मास ,वर्ष आदि व्यवहार करते हैं परन्तु वास्तविक रूप में वह एक है।
7..दिक्.
अर्थात दिशा..प्राच्यादिव्यवहारहेतुर्दिक्। सा चैका नित्या विभ्वी च।
प्राच्यादि अर्थात पूर्व , पश्चिम ,उत्तर, दक्षिण आदि को जिसके द्वारा जाना जा सकता है उसे दिशा कहते हैं। इसके बिना दिशाओं का ज्ञान नहीं हो सकता है अतः यह पूर्व, पश्चिम आदि के व्यवहार का असाधारण कारण है। यह विभु अर्थात व्यापक है और नित्य है। व्यापक इस लिये कहा गया है, क्योंकि दिशाओं के भेद केवल नाम के हैं। वस्तुतः दिशा एक ही है।
8..आत्मा..
ज्ञानाधिकरणमात्मा। स द्विविधो — जीवात्मा परमात्मा च। तत्रेश्वरः सर्वज्ञः, परमात्मा एक एव। जीवस्तु प्रतिशरीर भिन्नो विभुर्नित्यश्च।
ज्ञान गुण के आश्रय को आत्मा कहते हैं। यह ज्ञान आत्मा में समवाय संबन्ध से रहता है। इस आत्मा नामक द्रव्य के दो भेद न्याय दर्शन में बताये गये है..1..आत्मा, 2. परमात्मा। परमात्मा ईश्वर है , सर्वज्ञ = सब कुछ जानने वाला है, सर्व समर्थ है तथा एक ही है।समवाय संबन्धेन नित्यज्ञानवत्वं ईश्वरत्वम्। अर्थात समवाय संबन्ध से नित्य ज्ञान वालेको ईश्वर कहते हैं।
सुखादिसमवायि कारणत्वं.. यह जीव का लक्षण कहा गया है।
जीवात्मा प्रत्येक शरीर में रहता है अतः विभु अर्थात व्यापक है तथा , भिन्न है, और नित्य है चेतन है । सुख-दुख आदि का समवायि कारण है।
9..मन..
सुखादि उपलब्धिसाधनानिमिन्द्रियं मनः
सुख और दुख की प्राप्ति का साधन/ माध्यम,जो इन्द्रिय है ,वह मन है। यह मन भिन्न -भिन्न, अनेक शरीर में स्थित रहता है, अतः यह अनन्त है। परमाणु रूप है अर्थात अत्यन्त सूक्ष्म है तथा नित्य है।
तर्कसंग्रह के अनुसार पदार्थ
2..पदार्थ..गुण.
गुण क्या है…द्रव्यकर्मभिन्नत्वे सति सामान्यवत्वं गुण सामान्य लक्षणं…जाति मान पदार्थ गुण कहे जाते हैं। ये द्रव्य तथा कर्मसे भिन्न होते हैं। ये गुण 24 हैं…
रूप- रस -गन्ध -स्पर्श -संख्या- परिमाण- पृथकत्व- संयोग – विभाग -परत्वापरत्व -गुरुत्व- द्रवत्व- स्नेह -शब्द -बुद्धि- सुख दुखेच्छा -द्वेष -प्रयत्न -धर्माधर्म संस्काराश्चतुर्विंशतिर्गुणाः।
3..कर्म..
कर्म का लक्षण है.. ” संयोग से भिन्न हो कर जो संयोग का असमवायि कारण है ” वह कर्म है। संयोग से भिन्न हो कर इसलिये क्योंकि संयोग का असमवायि कारण संयोग भी होता है अतः अतिव्यप्ति हाटाने के लिये संयोग से भिन्न होना ऐसा कहा गया है।कर्म नामक पदार्थ केवल मूर्त द्रव्य में ही रहता है।
पांच प्रकार के कर्म का उल्लेख किया गया है…
उत्क्षेपण अपक्षेपणऽऽकुञ्चन प्रसारण गमनादि पञ्च कर्माणि। उत्क्षेपण अर्थात ऊपर की ओर फेंकना, अपक्षेपण =नीचे की ओर फेंकना, आकुञ्चन =समेटना, प्रसारण अर्थात फैलाना, गमन अर्थात चलना ये पांच कर्म हैं।
4..सामान्य…
नित्यत्वे सति अनेकसमवेतत्वम् सामान्यम् “अर्थात नित्य हो कर जो अनेक में समवाय संबन्ध से रहता है।
सामान्य नित्य है, एक है, तथा अनेक अधिकरणों में समवाय संबन्ध से रहता है। सामान्य को ‘जाति ‘ भी कहते हैं। जैसे मनुष्य जाति। यह सभी मनुष्यों में समवाय संबन्ध से रहता है।
सामान्य के दो भेद हैं..1..पर सामान्य 2.. अपर सामान्य..” परमपरं चेति द्विविधं सामान्यं “।
परत्वम् च अधिक देशवृत्तित्वं… अर्थात अधिक देश में रहने वाले सामान्य को पर सामान्य कहते हैं। जैसे.. द्रव्यत्व जाति पृथ्वी आदि समस्त द्रव्यों में रहती है, अतः वह पर जाति या पर सामान्य है।
अपरत्वम् न्यूनदेश वृत्तित्वं.. अर्थात न्यून देश में रहने वाले सामान्य को अपर सामान्य कहते हैं। जैसे पृथ्वीत्व जाति केवल पृथ्वी में रहती है अतः न्यून देश में रहने से वह अपर सामान्य है।
5..विशेष..
लक्षण…नित्य द्रव्य वृत्तयो विशेषास्त्वनन्ता एव। अर्थात नित्य द्रव्य में रहने वाले विशेष अनन्त हैं।“
अन्त्यत्वे सति नित्यद्रव्यवृत्तित्वं विशेषत्वं “.अर्थात अन्त्य हो कर भी जो नित्य द्रव्य में रहता है, उसे विशेष कहते हैं।पृथ्वी जल तेज, वायु के परमाणु, आकाश, काल, दिक्, आत्मा और मन ये नित्य द्रव्य होते हैं।
तो नित्य क्या है?..ध्वंस से भिन्न हो कर भी जो ध्वंस का प्रतियोगी नहीं है वह नित्य है।
6..समवाय..
समवाय क्या है? नित्य संबन्धत्वं समवायलक्षणं…अयुतसिद्धवृत्तिः।अर्थात नित्य संबन्ध को समवाय कहते हैं। समवाय संबन्ध अर्थात जिस संबन्ध के बिना वस्तु का अस्तित्व ही न रहे। अयुतसिद्ध अर्थात अविच्छेद्य या जिसे पृथक न किया जा सके।समवायस्त्वेक एव.. समवाय संबन्ध एक ही होता है।
अवयव और अवयवी, जाति और व्यक्ति के, गुण और गुणी के, क्रिया और क्रियावान, विशेष और नित्य द्रव्य का संबन्ध नित्य / समवाय होता है। यह संबन्ध संयोग से भिन्न होता है
7..अभाव..
भावभिन्नः अभावः। प्रतियोगिज्ञानाधीनविषयत्वं। अर्थात जिसका ज्ञान उसके प्रतियोगी पदार्थ के ज्ञान पर आधारित हो, उसे अभाव कहा जाता है।
सामान्यतः किसी काल में या किसी स्थान पर किसी वस्तु का ना होना उसका अभाव कहा जाता है।
अभाव के चार भेद हैं…
1.. प्रागभाव.. अनदिसाऽन्तः प्रागभावः। उत्पत्तेः पूर्वं कार्यस्य। प्राग् अर्थात पूर्व या पहले।वस्तु की उत्पत्ति के पूर्व उस वस्तु का अभाव होना। अर्थात जिसका आदि नहीं है, अन्त है, ऐसे अभाव को प्रागभाव कहते हैं। घट आदि कार्य की उत्पत्ति के पहले प्रागभाव अपने प्रतियोगी कार्य के समवायि कारण के रूप में रहता है।प्रगाभाव अनादि काल से चला आ रहा है।
2..प्रध्वंसाऽभाव..सादिरन्तः प्रध्वंसः, उत्पत्त्यनन्तरं कार्यस्य…जिसका आदि तो है परन्तु अन्त नहीं है वह प्रध्वंसाभाव है। अर्थात जिसकी उत्पत्ति है पर जो नष्ट नहीं होता है।
3.. अत्यन्ताऽभाव..त्रैकालिक अर्थात.. भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों काल में होने वाले तथा संसर्ग =संबन्ध से युक्त प्रतियोगिता जिसमें है, उस अभाव को अत्यन्ताभाव कहा गया है। अर्थात जिसका अभाव सर्वदा हो। जैसे… आकाश कुसुम.. आकाश का पुष्प। शशशृङ्ग… खरगोश की सींग।
4.. अन्योन्याऽभाव.. तादात्म्य संबन्ध से युक्त प्रतियोगिता वाले अभाव को अन्योन्याऽभाव कहते हैं। अर्थात.. एक वस्तु का दूसरी वस्तु में अभाव होना या एक वस्तु का दूसरी वस्तु में न पाया जाना।।जैसे.. घट, पट नहीं है.., पट में घट नहीं है।अर्थात घट का तादात्म्य घट में ही है पट में नहीं है।
तर्क संग्रह के अनुसार पदार्थ
अनुबन्ध चतुष्टय के लिये इसे देखिये..
सूक्ष्म शरीर /लिङ्ग शरीर के लिये इसे देखिये..