Nasti Tyag Samam Sukham sanskrit Class 10 नास्ति त्याग समं सुखं अर्थात ” त्याग के समान सुख नहीं है। प्रस्तुत पाठ आचार्य आर्यशूर द्वारा रचित जातकमाला नामक पुस्तक से लिया गया है। जातकमाला पुस्तक में भगवान बुद्ध के पूर्वजन्म की अनेक कथाएं हैं , जिनमें दूसरों के लिये सब कुछ त्याग कर देने की शिक्षा दी गई है ।उन्हीं में से एक कथा यह भी है, जिसमें बुद्ध का जन्म शिवियों के राजा के रूप में हुआ था। वे पुत्र के समान प्रजा का पालन करते थे। उनके राज्य में याचक अन्न, वस्त्र.,धन, सोना, चांदी पा कर अत्यन्त संतुष्ट थे। उनकी दानशीलता के बारे में सुन कर अन्य देशों से भी लोग आते थे।
उनकी इसी दानशीलता की परीक्षा लेने के लिये इन्द्र ने याचक का वेष बना कर उनसे उनकी एक आँख दान में माँगा, तब राजा ने याचक बने इन्द्र को अपनी दोनों आँखें प्रेमपूर्वक दान में दे दिया। इससे प्रसन्न हुए इन्द्र नें कुछ दिनों बाद उनकी दोनों आँखें लौटा दी।
पाठ…नास्ति त्याग समं सुखं
राजीवः……सोम ! पश्य एतत् चित्रम् ।
राजीव……सोम! इस चित्र को देखो।
सोमः …..अतीव सुन्दरम्।
सोम …..बहुत सुन्दर।
शोभा……एतत् तु अजन्ता-गुहानां चित्रं प्रतीयते।
शोभा……. ये तो अजन्ता की गुफाओं के चित्र प्रतीत होते हैं।
राजीवः ….आम् ! महाराष्ट्र प्रदेशे स्थिताः एताः अजन्ता गुहाः एव।
राजीव…. हाँ! महाराष्ट्र प्रदेश में स्थित ये अजन्ता की गुफाएं ही हैं।
सौरभः …..अहो ! दृष्टम्। अत्र तु अनेकानि जातक चित्राणि उट्टङ्कितानि सन्ति।
सौरभ… अरे!! देखा है। यहाँ तो अनेक जातक चित्र अङ्कित हैं।
देविका …..जातकं किं भवति ?
देविका….. जातक क्या होता है?
राजीवः …..अहं न जाने! आचार्यं प्रक्ष्यामः । (तत्र गत्वा)
राजीव…. मैं नहीं जानता। आचार्य जी से पूछते हैं। (वहाँ. जा कर )
छात्रा: ……गुरुवर ! जातकं किं भवति ?
छात्र……..गुरुवर!! जातक क्या होता है?
आचार्यः ….जातकम् अर्थात् जन्म। ‘जातकमाला’ इति नाम्नि पुस्तके भगवतः बुद्धस्य पूर्वजन्मनः विविधाः कथाः सन्ति। एतासु परहिताय सर्वस्वं त्यक्तव्यम् इत्येव शिक्षितम्। एतादृशीम् एकां कथां कथयामि।
आचार्य… जातक अर्थात जन्म( भगवान बुद्ध के)। जातकमाला नाम की पुस्तक में भगवान बुद्ध के पूर्व जन्म की अनेक कथाएं हैं। इन सभी कथाओं में दूसरों के हित के लिये अपना सब कुछ त्याग कर देना चाहिये ऐसी शिक्षा दी गई है। ऐसी ही एक कथा कहता हूँ।
छात्रा: …..एवम् ! वयम् एतादृर्शी कथां श्रोतुम् उत्सुकाः ।
छात्र…ऐसा! हम सब ऐसी कथा सुनने के लिये उत्सुक हैं।
आचार्य: ….श्रूयतां तावत्। बौद्धाचार्यस्य आर्यशूरस्य जातकमालायाः शिविजातक-आधारिता एषा कथा।
आचार्य… तो सुनिये!.. बौद्ध आचार्य आर्यशूर की जातकमाला के शिविजातक पर आधारित यह कथा।
Nasti Tyag Samam Sukham
अथ एकदा भगवान् बोधिसत्त्वः बहुजन्मार्जितपुण्यफलैः शिवीनां राजा अभवत्। स बाल्यात् एव वृद्धोपसेवी , विनयशीलः, शास्त्रपारङ्गतः च आसीत्। जनकल्याणकर्मसु रतः असौ पुत्रवत् प्रजाः पालयति स्म। कारुण्य-औदार्यादिसद्गुणोपेतः स नगरस्य समन्ततः धन-धान्यसमृद्धाः दानशालाः अकारयत्। तत्र अर्थिनां समूहः अन्न-पान-वसन-रजत- सुवर्णादिकानि अभीष्टानि वस्तूनि प्राप्य सन्तुष्टः अभवत्। राज्ञः दानशीलताम् आकर्ण्य देशान्तरेभ्योऽपि जनाः तं देशम् आयान्ति स्म।
शब्दार्थ-बोधिसत्त्वः बुद्ध का पूर्वजन्म का नाम , बहु-जन्म-अर्जित-पुण्य फलैः अनेक जन्मों में अर्जित किये हुए पुण्यों /धर्म के कार्यों के परिणाम स्वरूप , शिवीनाम-शिवियों के , अभवत्=हुए , बाल्यात् = बचपन से , वृद्धोपसेवी= वृद्धों की सेवा करने वाले , विनयशीलः – विनम्र स्वभाव के , शास्त्र-पारङ्गतः = शास्त्रों में प्रवीण , जन-कल्याण-कर्मसु = जन कल्याण के कर्मों में , रतः= लगे हुए , पुत्रवत्=पुत्र के समान , कारुण्यं=करुणा, दया, औदार्थ- = उदारता , सद्गुणोपेतः= श्रेष्ठ गुणों से युक्त , समन्ततः-सब ओर से, धन-धान्य-समृद्धाः- धन -धान्य से भरपूर , अकारयत् = बनवाए , अर्थिनाम्-याचकों का , अन्नं-अनाज , पानं =जल , वसनं-वस्त्र , रजतं-चाँदी , सुवर्ण = सोना , अभीष्टानि-मनचाही.., वस्तूनि =-वस्तुओं को , प्राप्य= प्राप्त कर , सन्तुष्टः= प्रसन्न , आकर्ण्य =सुनकर , देशान्तरेभ्यः =दूसरे देशों से, आयान्ति स्म-आते थे ।
अर्थ- एक बार भगवान् बोधिसत्त्व अनेक जन्मों में अर्जित किये हुए पुण्य कर्म फलों से शिवियों के राजा हुए । वह बचपन से ही वृद्धों की सेवा करने वाले , विनम्र स्वभाव वाले तथा शास्त्रों में पारङ्गत /प्रवीण थे । जन-कल्याण के कर्मों में लगे हुए वह पुत्र के समान प्रजा का पालन करते थे । करुणा, उदारता आदि श्रेष्ठ गुणों से युक्त, उन्होनें नगर के चारो ओर धन-धान्य से सम्पन्न ( भरी हुई )दानशालाएँ बनवाई। वहाँ याचकों का समूह ( माँगने वालों का समूह)अन्न , जल , वस्त्र, चाँदी तथा सोना आदि इच्छित( मनचाही) वस्तुओं को प्राप्त कर सन्तुष्ट (प्रसन्न) रहते थे । राजा की दानशीलता को सुनकर दूसरे देशों से लोग भी उस देश को आते थे।
संधि कार्य…
- बहुजन्मार्जित =बहुजन्म + अर्जित (दीर्घ स्वर संधि )
- वृद्धोपसेवी= वृद्ध + उपसेवी (गुण संधि)
- सद्गुणोपेतः= सत् +गुण +उपेतः (जश्त्व संधि , गुण संधि )
- सुवर्णादिकानि= सुवर्ण +आदिकानि (दीर्घ स्वर संधि )
- देशान्तरेभ्योऽपि =देशान्तरेभ्यः +अपि (विसर्ग संधि)
समास कार्य…
- वृद्धोपसेवी = वृद्धाणाम् उपसेवी ( षष्ठी तत्पुरुष )
- विनयशीलः = विनय: एव शीलं यस्य सः (बहुब्रीहि)
- शास्त्रपारङ्गतः= शास्त्रेषु पारङ्गतः (सप्तमी तत्पुरुष )
- धान्यसमृद्धाः= धान्येन समृद्धाः (तृतीया तत्पुरुष )
- दानशालाः= दानाय शालाः (चतुर्थी तत्पुरुष )
- अभीष्टानि वस्तूनि = अभीष्टवस्तूनि ( कर्मधारय)
- सद्गुणोपेतः =सद् गुणैः उपेतः ( तृतीया तत्पुरुष)
प्रकृति प्रत्यय..
- प्राप्य = प्र +आप् + ल्यप्
- भगवन् = भग् + मतुप्
- दानशीलताम् = दानशील + तल्
- अर्थिनाम् = अर्थ +इन्
- उपसेवी = उपसेवा +इन्
अथ कदाचित् दानशालासु विचरन् स राजा बहुधनलाभेन सन्तुष्टानाम् अर्थिनां विरलसंख्यां विलोक्य अचिन्तयत् ‘मम अर्थिनः तु धनलाभमात्रेण सन्तोषं भजन्ते। नूनं ते दानवीराः सौभाग्यशालिनः यान् याचकाः शरीरस्य अङ्गानि अपि याचन्ते।’ एवं राज्ञः स्वेषु गात्रेष्वपि निरासक्तिं विज्ञाय सकलं ब्रह्माण्डं व्याकुलं सञ्जातम् ।
शब्दार्थ-अथ =तदनन्तर/ उसके बाद ,कदाचित्= किसी समय , दानशालासु =दानशालाओं में , विचरन् =घूमते हुए , बहुधनलाभेन- बहुत सारे धन की प्राप्ति से , सन्तुष्टानाम्=सन्तुष्ट हुए ,अर्थिनाम् = याचकों की( माँगने वालों की )विरल-=कम ,संख्याम्=संख्या को , विलोक्य=देख कर, अर्थिनः= याचक, तु-तो , धनलाभमात्रेण =केवल धन की प्राप्ति से , सन्तोषं भजन्ते = सन्तुष्ट जाते हैं ,नूनम्=निश्चय ही, दानवीराः- दानियों में वीर, सौभाग्यशालिनः = सौभाग्यशाली हैं, यान्=जिनसे , याचन्ते= माँगते हैं, स्वेषु=अपने , गात्रेषु = अपने शरीर में ,अनासक्तिं =लगाव न होने के भाव को(detachment), विज्ञाय=जानकर , सकलं=सारा ,ब्रह्माण्डं-विश्व
अर्थ-उसके बाद किसी समय दानशालाओं में भ्रमण करते हुए उस राजा नें , बहुत सारे धन को पा कर सन्तुष्ट हुए याचकों की कम संख्या को देखकर सोचा —मेरे याचक तो केवल धन की प्राप्ति से ही सन्तुष्ट हो जाते हैं। निश्चय ही वे दानवीर अधिक सौभाग्यशाली होते हैं , जिनसे याचक शरीर के अंग भी माँगते हैं। इस प्रकार राजा की अपने शरीर के अंगों में अनासक्ति/ अरुचि की भावना को देखकर सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड व्याकुल हो गया।
संधि कार्य..
- गात्रेष्वपि= गात्रेषु + अपि (यण् संधि)
- सञ्जातम् =सम् +जातं (परसवर्ण संधि )
- व्याकुलं=वि +आकुलम् ( यण् संधि )
- अङ्गानि= अम् +गानि (परसवर्ण संधि )
समास..
- बहुधनलाभेन= बहुधनानाम लाभेन (षष्ठी तत्पुरुष )
- दानवीराः= दाने वीराः (सप्तमी तत्पुरुष )
- विरलसंख्यां= विरलाम् संख्याम् (कर्मधारय)
- शरीरस्य अङ्गानि=शरीरअङ्गानि( षष्ठी तत्पुरुष )
- अनासक्तिं= न आसक्तिम् (नञतत्पुरुष )
प्रकृति प्रत्यय…
- विचरन्=वि +चर् +शतृ
- अर्थिनां= अर्थ + इन्
- विलोक्य= वि +लोक् +ल्यप्
- विज्ञाय= वि +ज्ञा + ल्यप्
- सञ्जातम्= सम् + जन् +क्त
राज्ञि एवं विचारयति सति तस्य दानशीलतां परीक्षितुं देवाधिपतिः शक्रः नेत्रहीनयाचकस्य रूपं धारयित्वा तत्पुरतः अवदत् हे राजन् ! भवतः दानवीरताम् आकर्ण्य आशान्वितः भवत्समीपम् आगतोऽस्मि । देव ! रवि-शशि-तारा-मण्डलभूषितं जगत् एतत् कथमिव पश्येयं चक्षुर्हीनः ।
शब्दार्थ-राज्ञि= राजा के , एवम्-इस प्रकार , विचारयति = सोच विचार करने पर , दानशीलताम्= दानशीलता की /दानी स्वभाव की , परीक्षितुं =-परीक्षा लेने के लिए , देवाधिपतिः=देवताओं के स्वामी , शकः =इन्द्र, नेत्र-हीन=नेत्रों/आँखों से रहित (अन्धे) याचकस्य= याचक का ,रूपं = रूप , धारयित्वा= धारण करके ,तत्पुरतः= उसके सामने , भवतः = आपके , आशान्वितः = आशा वान होकर/ आशा से, भवत्समीपम्= आपके पास, आगतोऽस्मि= आया हूँ , देव-राजन् , रवि-शशि-तारामण्डल=भूषितम्-सूर्य, चन्द्रमा तथा तारों से सजे हुए , जगत्= संसार को , कथमिव = कैसे, पश्येयम् = देखूँ , चक्षुहींनः = नेत्रों से हीन ।
अर्थ-राजा के इस प्रकार विचार करने पर उसकी दानशीलता की परीक्षा लेने के लिए देवताओं के राजा इन्द्र नें नेत्रहीन ( अन्धे)याचक ( माँगने वाले)का रूप धारण करके उस राजा के सामने कहा हे राजन् ! आपकी दानवीरता को सुनकर, आशा(expectation) से युक्त हो कर मैं आपके सामने आया हूँ , राजन्, में नेत्रों से हीन ( अन्धा )इस सूर्य, चन्द्रमा तथा तारों से सुशोभित संसार को कैसे देखू?
संधि कार्य..
- देवाधिपतिः= देव + अधिपतिः ( दीर्घ स्वर संधि)
- आशान्वितः= आशा + अन्वितः ( दीर्घ स्वर संधि)
- भवत्समीपम्= भवत् + समीपम्
- आगतोऽस्मि= आगतः + अस्मि ( विसर्ग संधि)
- चक्षुर्हीनः= चक्षुः + हीनः (विसर्ग संधि)
- परीक्षितुं = परि + ईक्षितुं (दीर्घ स्वर संधि)
समास…
- दानशीलताम्=दानस्य शीलताम् (षष्ठी तत्पुरुष )
- देवाधिपतिः= देवानाम् अधिपतिः (षष्ठी तत्पुरुष )
- आशान्वितः= आशया अन्वितः (तृतीया तत्पुरुष )
- तत्पुरतः= तस्य पुरतः (षष्ठी तत्पुरुष )
- चक्षुहींनः= चक्षुभ्याम् हीनः (तृतीया तत्पुरुष )
- मण्डलभूषितं = मण्डलेन भूषितम् ( तृतीया तत्पुरुष)
प्रकृति प्रत्यय…
- परीक्षितुं= परि + ईक्ष् + तुमुन्
- विचारयति = वि +चर् + शतृ
- दानशीलताम् = दानशील + तल्
- आकर्ण्य=आ + कर्ण्+ ल्यप्
- आगतः = आ +गम् + क्त
राजा उवाच —भगवन् ! भवन्मनोरथं पूरयित्वा आत्मानम् अनुगृहीतं कर्तुम् इच्छामि। आदिश्यतां किं करवाणि? विप्रः अकथयत् – यदि भवान् प्रीतः, तदा त्वत्तः एकस्य चक्षुषः दानम् इच्छामि , येन मम लोकयात्रा निर्बाधा भवेत्। तत् श्रुत्वा राजा अचिन्तयत्- “लोके चक्षुर्दानं दुष्करमेव। नूनम् ईदृशं दानम् इच्छन् अयं याचकः केनापि प्रेरितः स्यात् । अथवा भवतु नाम किं बहु चिन्तनेन?” इति विचार्य राजा अभाषत “भो मित्र! किमेकेन चक्षुषा, अहं भवते चक्षुर्द्वयमेव प्रयच्छामि इति।”
शब्दार्थ-राजा उवाच=राजा नें कहा , भगवन् =हे भगवन्, भवन्मनोरथम् =आपकी इच्छा को , पूरयित्वा = पूरा करके , आत्मानम् =अपने आपको, अनुगृहीतं = धन्य , कर्तुम् =करना , इच्छामि= चाहता हूँ , आदिश्यताम् = आदेश दीजिये,किं करवाणि=क्या करूँ? विप्रः=ब्राह्मण , प्रीतः= प्रसन्न, त्वत्तः =आपसे, एकस्य= एक, चक्षुषः= नेत्र/आँख का, दानम्= दान , लोकयात्रा=संसार की यात्रा, निर्बाधा= बाधा रहित/ बिना किसी रुकावट के, चक्षुर्दानम्= नेत्रदान , दुष्करम्=कठिन , प्रेरितः= प्रेरित/ उकसाया गया है , भवतु नाम =कुछ भी हो, बहु चिन्तनेन =अधिक सोचने से, प्रयच्छामि =देता हूँ।
अर्थ-राजा ने कहा-भगवन् आपकी इच्छा को पूरा करके मैं अपने आपको धन्य करना चाहता हूँ। आदेश दाँजिए, मैं क्या करुँ? ब्राह्मण नें कहा…अगर आप प्रसन्न हैं , तो मैं आपसे एक आँख का दान चाहता हूँ , जिससे मेरी संसार की यात्रा बिना किसी रुकावट के हो सके। उसे सुनकर राजा ने सोचा…. “संसार में नेत्रदान कठिन कार्य ही है। निश्चय ही इस प्रकार के दान की इच्छा करता हुआ यह याचक किसी के द्वारा प्रेरित किया गया है। या..जो कुछ भी हो, अधिक सोचने से क्या लाभ? यह सोच कर राजा ने कहा-“हे मित्र! एक आँख से क्या (लाभ )? मैं आपको दोनों आँखें ही दे देता हूँ।”
संधि कार्य…
- चक्षुर्दानं= चक्षुः +दानं (संधि विसर्ग )
- भवन्मनोरथं= भवत् + मनोरथम् (व्यञ्जन संधि)
- चक्षुर्द्वयमेव= चक्षुः + द्वयम् + एव (विसर्ग संधि / संयोग)
- केनापि= केन +अपि (दीर्घ स्वर संधि)
- केनापि= केन +अपि ( दीर्घ स्वर संधि)
समास…
- भवन्मनोरथं= भवतः मनोरथम् (षष्ठी तत्पुरुष)
- लोकयात्रा…लोकस्य यात्रा (षष्ठी तत्पुरुष)
- निर्बाधा= निर्गता बाधा यस्याः सा ( बहुब्रीहि)
- चक्षुर्दानं= चक्षुष: दानं (षष्ठी तत्पुरुष)
प्रकृति प्रत्यय…
- भगवन् = भग + मतुप्
- त्वत्तः= त्वत् + तसिल्
- प्रेरितः=प्र + ईर् + क्त
- कर्तुम्= कृ + तुमुन्
- श्रुत्वा =श्रु + क्त्वा
- विचार्य =वि + चर् +ल्यप्
- इच्छन्= ईष् + शतृ
राज्ञः नेत्रदानार्थ निश्चयं ज्ञात्वा अमात्याः विषण्णाः भूत्वा अवदन्-महाराज! अलम् एतावता दुस्साहसेन, प्रभूतं धनमेव दीयताम्।
अथ स राजा तान् अवदत्-
दास्यामीति प्रतिज्ञाय योऽन्यथा कुरुते मनः ।
कार्पण्यानिश्चितमतेः कः स्यात् पापतरस्ततः ।।
नाहं स्वर्गं न मोक्षं वा कामये किन्तु आर्त्तानां परित्राणाय एव मे निश्चयः।
शब्दार्थ…..अमात्याः=मन्त्रीगण , विषण्णाः=दुःखी , एतावता=इस प्रकार , दुस्साहसेन= दुस्साहस (कठिन साहस के कार्य ) , प्रभूतम्= बहुत अधिक, दीयताम्=दे दीजिये, प्रतिज्ञाय=प्रतिज्ञा करके , यः=जो , मनः-=मन को। अन्यथा=दूसरे प्रकार का, कुरुते=कर लेता है , /बदल लेता है ततः= उससे , कार्पण्य= कंजूस,अनिश्चितमतेः= निश्चयरहित बुद्धि वाले से, पापतरः=अधिक पापी , कामये =चाहता हूँ। आर्त्तानां= दुःखियों के, परित्राणाय=रक्षा के लिए।
अर्थ-राजा के नेत्रदान के निश्चय को जान कर मन्त्रियों ने दुःखी होकर कहा -महाराज, ऐसा दुस्साहस मत करिये । इसे अधिक धन दे दीजिए। उसके बाद राजा ने उन्हें कहा-
श्लोक अर्थ...मैं दान ‘दूँगा’ ऐसी प्रतिज्ञा करके जो अपना मन बदल लेता है, हृदय की दुर्बलता के कारण / कंजूस और अस्थिर बुद्धि वाले उस व्यक्ति से बड़ा पापी और कौन हो सकता है? (अर्थात् उससे बड़ा पापी कोई नहीं हो सकता है।) “मैं न स्वर्ग चाहता हूँ , न ही मोक्ष , किन्तु दुःखियों की रक्षा करना ही मेरा निश्चय है”।
श्लोक अन्वय…..दास्यामि इति प्रतिज्ञाय यः मनः अन्यथा कुरुते कार्पण्य-अनिश्चितमतेः ततः पापतरः कः स्यात् ?
संधि कार्य…
- नेत्रदानार्थ= नेत्रदान +अर्थम् (दीर्घ स्वर संधि)
- दास्यामीति= दास्यामि +इति (दीर्घ स्वर संधि)
- योऽन्यथा+ यः +अन्यथा (विसर्ग संधि/ पूर्व रूप संधि )
- कार्पण्यानिश्चितमतेः= कार्पण्य +अनिश्चितमतेः (दीर्घ स्वर संधि)
- पापतरस्ततः= पपतरः + ततः (विसर्ग संधि)
- नाहं = न +अहम् (दीर्घ स्वर संधि)
समास…
- नेत्रदानार्थ= नेत्रस्य दानार्थं ( षष्ठी तत्पुरुष)
- महाराज= महान् राजा ( कर्मधारय)
- कार्पण्यानिश्चितमतेः= कार्पण्येन अनिश्चिता मतिः यस्य सः तस्य ( बहुब्रीहि )
- प्रभूतं धनम् = प्रभूतधनं ( कर्मधारय)
प्रकृति प्रत्यय…
- ज्ञात्वा= ज्ञै + क्त्वा
- भूत्वा= भू +क्त्वा
- विषण्णाः= वि +सद् +क्त
- प्रभूतम्= प्र +भू +क्त
- प्रतिज्ञाय= प्रति +ज्ञा +ल्यप्
- पापतर =पाप +तरप्
अस्य याच्ञा वृथा मा अस्तु इत्युक्त्वा स राजा वैद्योक्तविधिना नीलोत्पलम् इव एकं चक्षुः शनैः अक्षतम् उत्पाट्य प्रीत्या याचकाय समर्पितवान्। सः अपि तत् नेत्रं यथास्थानम् अस्थापयत्। ततो महीपालः द्वितीयं नेत्रमपि शनैः निष्कास्य तस्मैअयच्छत्। अथ विस्मितः शक्रः अचिन्तयत्- अहो धृतिः !….अहो सत्त्वम् !…..अहो सत्त्वहितैषिता !
शब्दार्थ… याच्ञा=माँग, वृथा=व्यर्थ/बेकार , इत्युक्त्वा=ऐसा कह कर ,वैद्योक्तविधिना=वैद्यों द्वारा बताई विधि से , नीलोत्पलम्=नीलकमल के, इव= समान , एकं चक्षुः= एक आँख को ,शनैः= धीरे से , अक्षतम्=बिना हानि के /बिना खण्डित हुए, उत्पाट्य=निकाल कर, प्रीत्या=प्रेम पूर्वक, याचकाय=याचक को, समर्पितवान्=भेंट कर दिया/ दे दिया, सोऽपि =उसने भी /(याचक नें भी ), तन्नेत्रम्=उस नेत्र को, अस्थापयत्=रख दिया, ततः -=तब / उसके बाद, महीपालः=राजा नें ,द्वितीयम्=दूसरी, निष्कास्य=निकाल कर ,तस्मै=उसे , अयच्छत्= दे दिया, विस्मितः =आश्चर्य चकित अचिन्तयत्=सोचा ,शक्रः= इन्द्र, धृतिः= धैर्य , सत्वम्=मन की शक्ति, (will-power.)सत्त्व= प्राणियों के ,हितैषिता=कल्याण की इच्छा
अर्थ-“इसकी याचना व्यर्थ नहीं होनी चाहिए”। यह कहकर उस राजा ने वैद्यों द्वारा बताई गई विधि से नील कमल के समान एक नेत्र को धीरे से बिना किसी हानि के निकाल कर प्रेमपूर्वक याचक को दे दिया। उसने भी(उस याचक नें भी) उस नेत्र को यथास्थान रख दिया। तत्पश्चात् राजा ने दूसरा नेत्र भी धीरे से और निकाल कर उसे दे दिया। तब आश्चर्य से युक्त हो कर इन्द्र सोचने लगे…. अहो! कैसा धैर्य है?कैसी मानसिक शक्ति है?/ कैसा साहस है? कैसी यह प्राणियों की हित /कल्याण करने की इच्छा है?
संधि कार्य…
- इत्युक्त्वा= इति + उक्त्वा(यण संधि)
- नीलोत्पलम्= नील + उत्पलम् (गुण संधि)
- वैद्योक्तविधिना= वैद्य + उक्तविधिना( गुण संधि )
- एकं चक्षुः= एकम् + चक्षुः (अनुस्वार संधि)
- हितैषिता= हित + एषिता ( वृद्धि संधि)
- तन्नेत्रम्= तत् + नेत्रं ( परसवर्ण , व्यञ्जन संधि)
समास…
- वैद्योक्तविधिना= वैद्यैः उक्ता तया विधिना ( तृतीया तत्पुरुष)
- नीलोत्पलम्= नीलम् उत्पलम् इव (कर्मधारय )
- सत्त्वहितैषिता= सत्त्वानाम् हितैषिता (षष्ठी तत्पुरुष )
- अक्षतम् = न क्षतम् (नञ् तत्पुरुष )
- यथास्थानम्= स्थानम् अनतिक्रम्य (अव्ययीभाव )
- महीपालः = महीम् पालयति यः सः ( बहुब्रीहि)
प्रकृति प्रत्यय…
- उक्त्वा = वच् +क्त्वा
- धृतिः = धृ + क्तिन्
- विस्मितः = वि + स्मि + क्त
- ऐषिता + ऐषित +टाप्
- समर्पितवान् = सम् + अर्प् + क्तवतु
नायं चिरं परिक्लेशम् अनुभवितुम् अर्हति। अतः प्रयतिष्ये चक्षुषोऽस्य पुनः प्रत्यारोपणाय इति।
कतिपयैः दिनैः व्रणविरोपणे जाते एकदा राजा सरोवरस्य समीपे विहरति स्म। तदा तस्य पुरतः पुनः देवराजः शक्रः उपस्थितः भूत्वा तस्य त्यागवृत्तिं प्रशंसन् अवदत्-…..
शक्रोऽहमस्मि देवेन्द्रस्त्वत्समीपमुपागतः ।
वरं वृणीष्व राजर्षे!यदिच्छसि तदुच्यताम् ।
श्लोक अन्वय….राजर्षे ! अहम् देवेन्द्रः शक्रः त्वत् समीपम् उपागतः अस्मि। वरम् वृणीष्व यत् इच्छसि तत् उच्यताम्।
शब्दार्थ—चिरं= लम्बे समय तक / अधिक समय तक , परिक्लेशम्=कष्ट , न अनुभवितुम् अर्हति =अनुभव के योग्य नहीं है , प्रयतिष्ये= मैं प्रयत्न करूँगा , प्रत्यारोपणाय=दुबारा पूर्व स्थान पर आरोपित करने के लिए , व्रण=घाव , विरोपणे= भरने में , पुरतः=सामने , प्रशंसन्=प्रशंसा करते हुए , अवदत् = कहा ,त्वत्समीपम्=तुम्हारे पास ,उपागतः = आया हुआ , देवेन्द्रः= देवराज, वृणीष्व= माँगो
अर्थ…-यह अधिक देर तक कष्ट का अनुभव करने योग्य नहीं है। अतः मैं इसकी आँखों को पुनः प्रत्यारोपण करने का प्रयत्न करूँगा। कुछ दिनों में घाव के भर जाने पर एक बार तालाब के किनारे घूमते हुए राजा के सामने फिर से देवराज इन्द्र उपस्थित होकर उसकी त्यागवृति की प्रशंसा करते हुए बोले..।
श्लोकार्थ.. “मैं देवराज इन्द्र , आपके पास आया हूँ। हे राजर्षि ! वरदान माँगिये.. जो चाहते हैं वो कहिये …”
संधि कार्य..
- नायं = न + अयम् (दीर्घ स्वर संधि)
- चक्षुषोऽस्य= चक्षुषः +अस्य ( विसर्ग संधि)
- शक्रोऽहमस्मि= शक्रः + अहम् + अस्मि (विसर्ग संधि / पूर्व रूप संधि)
- देवेन्द्रस्त्वत्समीपमुपागतः = देवेन्द्र: + त्वत् + समीपम् + उपागतः (विसर्ग संधि , संयोग)
- देवेन्द्र = देव + इन्द्र ( गुण संधि)
- राजर्षे = राज + ऋषिः ( गुण संधि)
- यदिच्छसि= यत् + इच्छसि ( जश्त्व संधि )
- तदुच्यताम् = तत् + उच्यताम् ( जश्त्व संधि )
- प्रत्यारोपणाय = प्रति + आरोपणाय (यण् संधि)
समास…
- व्रणविरोपणे= व्रणस्य विरोपणे (षष्ठी तत्पुरुष )
- सरोवरस्य समीपे = उपसरोवरम् (अव्ययीभाव )
- तस्य पुरतः = तत्पुरतः (षष्ठी तत्पुरुष )
- त्यागवृत्तिं = त्यागस्य वृत्तिम् (षष्ठी तत्पुरुष )
- देवराजः = देवानाम् राजा (षष्ठी तत्पुरुष )
- देवेन्द्रः = देवानाम् इन्द्रः (षष्ठी तत्पुरुष )
प्रकृति प्रत्यय…
- अनुभवितुम् =अनु +भू +तुमुन्
- उपस्थितः = उप +स्था +क्त
- वृत्तिम् =वृत् +क्तिन्
- भूत्वा =भू +क्त्वा
- प्रशंसन् = प्र + शंस् + शतृ
- जाते = जन् +क्त
- उपागतः= उप +आ +गम् +क्त
एवम् उक्तेन राज्ञा नेत्रार्थम् प्रार्थिते सति शक्रस्य प्रभावेण आत्मनः सत्यपुण्यबलेन च तस्य प्रथमम् एकं चक्षुः प्रतिष्ठितम् अभवत् ततः द्वितीयमपि। भूयः प्रीतः शक्रः वरम् अयच्छत्-
शतयोजनपर्यन्तं शैलानां पारं च द्रष्टुं समर्थः भव इति। इति उक्त्वा शक्रः तत्रैव अन्तर्हितः अभवत् ।
अतः सत्यमेव उक्तम्-
धनस्य निःसारलघोः स सारो यद् दीयते लोकहितोन्मुखेन ।
निधानतां याति हि दीयमानम् अदीयमानं निधनैकनिष्ठम् ॥
अन्वय….निःसारलघोः धनस्य सः सारः यत् लोकहित-उन्मुखेन दीयते। दीयमानम् (धनम्) निधानताम् हि याति। अदीयमान (धनम्) निधन-एकनिष्ठम् (भवति)
शब्दार्थ-… उच्यताम्=कहिए , एवम्=इस प्रकार , उक्तेन = कहे गये , राज्ञा =राजा के द्वारा , नेत्रार्थम्= आँखों के लिए , प्रार्थिते सति =प्रार्थना किये जाने पर, आत्मनः= अपने , सत्यपुण्यबलेन= सत्य और पुण्य की शक्ति से, प्रतिष्ठितम्=स्थित हो गया, भूयः = पुनः , प्रीतः = प्रसन्न, वरम् = वर / वरदान , अयच्छत् = दिया ।
शब्दार्थ…..अन्तर्हितः= अदृश्य(Disappear) , सत्यम्=सच , एव-ही , उक्तम्= कहा गया है , लोक-हित-उन्मुखेन =लोक कल्याण के लिये प्रवृत्त व्यक्ति के द्वारा , निःसार=सारहीन , लघोः= अत्यल्प/ कम, धनस्य , यत्,= जो धन (अर्थात् जो सारहीन , अत्यल्प धन) । दीयते= दिया जाता है, दीयमानम्=दिया जाता हुआ, अदीयमानम्=न दिया जाता हुआ , निधानताम्-समृद्धि को/ संपन्नता को , निधन-एक-निष्ठम्=जिसकी नियति या भाग्य एक दिन विनाश (निधन) है ( ऐसा धन)
अर्थ-इन्द्र के द्वारा इस प्रकार कहने पर , राजा के द्वारा नेत्र के लिए प्रार्थना किये जाने पर , इन्द्र के प्रभाव से तथा उसके (राजा के)अपने सत्य एवं पुण्य के बल से पहले उसकी ( राजा की )एक आँख स्थापित हुई , उसके बाद दूसरी भी( स्थापित हो गई )। पुनः प्रसन्न हुए इन्द्र नें राजा को वर दिया… ” सौ (100) योजन तक पर्वतों के पार देखने में समर्थ बनो “ यह कह कर इन्द्र वहां से अन्तर्धान/ अदृश्य हो गये।
अतः सत्य ही कहा गया है.. इस सारहीन धन का सार (अर्थात संक्षेप में अर्थ यही है)… कि लोक मंगल के कार्यों में प्रवृत्त व्यक्ति द्वारा अल्प मात्रा में भी दिया गया धन संपन्नता को प्राप्त होता है अर्थात बढ़ता है , जब कि नहीं दिया गया धन एक दिन विनष्ट हो जाता है।
संधि कार्य…
- नेत्रार्थम्= नेत्र + अर्थम् (दीर्घ स्वर संधि )
- तत्रैव = तत्र + एव (वृद्धि संधि)
- अन्तर्हितः= अन्तः +हितः (विसर्ग संधि)
- हितोन्मुखेन= हित + उन्मुखेन ( गुण संधि )
- निधनैकनिष्ठम्= निधन +एकनिष्ठं (वृद्धि संधि )
समास…
- नेत्रार्थम्= नेत्रस्य अर्थम् (षष्ठी तत्पुरुष )
- प्रीतः शक्रः = प्रीतशक्रः ( कर्मधारय)
- शक्रस्य प्रभावेण = शक्र प्रभावेण (षष्ठी तत्पुरुष )
- सत्यपुण्यबलेन= सत्यस्य च पुण्यस्य च( द्वन्द्व) तयोः बलेन (षष्ठी तत्पुरुष )
- लोकहितोन्मुखेन= लोकहितस्य उन्मुखेन (षष्ठी तत्पुरुष )
- अदीयमानं= न दीयमानम् (नञ तत्पुरुष )
प्रकृति प्रत्यय..
- प्रार्थिते= प्र + अर्थ + क्त
- द्रष्टुम् = दृश् + तुमुन्
- प्रतिष्ठितं = प्रति + स्था + क्त
- उक्त्वा = वच् + क्त्वा
- दीयमानं = दा + शानच्
- उक्तम् =वच् + क्त
- निधानताम्= निधान + तल्
अभ्यास कार्य..
1..एकपदेन उत्तरत
- (क) भगवान् बोधिसत्त्वः कथं शिवीनां राजा अभवत् ?
- (ख) सकलं ब्रह्माण्डं कीदृशं सञ्जताम् ?
- (ग) के सौभाग्यशालिनः यान् याचकाः शरीरस्य अङ्गानि याचन्ते ?
- (घ) राजा वैद्योक्तविधिना नीलोत्पलम् इव किम् अक्षतम् उदपाटयत् ?
- (ङ) राजा कस्य समीपे विहरति स्म ?
- (च) राज्ञः काम् आकर्ण्य देशान्तरेभ्योऽपि जनाः आयान्ति स्म ?
- (छ) भूयः प्रीतः शक्रः किम् अयच्छत् ?
उत्तर…
- (क) बहुजन्मार्जितपुण्यफलैः
- (ख) व्याकुलम्
- (ग)दानवीराः
- (घ) एकं चक्षुः
- (ङ) सरोवरस्य
- (च) दानशीलताम्
- (छ) वरम्
2..पूर्णवाक्येन उत्तरत –
- (क) बोधिसत्त्वः शैशवात् एव कीदृशः आसीत् ?
- (ख) शिवेः राज्ये याचकाः किं लब्ध्वा सन्तुष्टाः अभवन् ?
- (ग) नेत्रहीनयाचकस्य रूपं धृत्वा शक्रः बोधिसत्त्वं किम् अवदत् ?
- (घ) सकलं ब्रह्माण्डं किं ज्ञात्वा व्याकुले जातम् ?
- (ङ) राजा प्रीत्या याचकाय किं समर्पितवान् ?
- (च) शक्रः किं वरम् अयच्छत् ?
उत्तर…
- (क) बोधिसत्त्वः शैशवात् एव वृद्धोपसेवी , विनयशीलः, शास्त्रपारङ्गतः च आसीत्।
- (ख) शिवेः राज्ये याचकाः अन्न-पान-वसन-रजत- सुवर्णादिकानि अभीष्टानि वस्तूनि प्राप्य सन्तुष्टाः अभवन् ।
- (ग) नेत्रहीनयाचकस्य रूपं धृत्वा शक्रः बोधिसत्त्वं अवदत्…. “हे राजन् ! भवतः दानवीरताम् आकर्ण्य आशान्वितः भवत्समीपम् आगतोऽस्मि”।
- (घ) राज्ञः स्वेषु गात्रेष्वपि निरासक्तिं ज्ञात्वा सकलं ब्रह्माण्डं व्याकुलं जातम्।
- (ङ) राजा प्रीत्या याचकाय स्वचक्षुर्द्वयं समर्पितवान्।
- (च) शतयोजनपर्यन्तं शैलानां पारं च द्रष्टुं समर्थः भव इति शक्रः वरम् अयच्छत्।
- अधोलिखित-कथनेषु स्थूलपदानि आधृत्य उदाहरणानुसारं प्रश्ननिर्माणं क्रियताम्- यथा-….. राजा नगरस्य समन्ततः दानशालाः अकारयत्।
राजा कस्य समन्ततः दानशालाः अकारयत् ?
- (क) अभीष्टवस्तूनि प्राप्य याचकाः सन्तुष्टाः आसन् ।
- (ख) दानशालासु विचरन् राजा अचिन्तयत्।
- (ग) राजा पुत्रवत् प्रजाः पालयति स्म।
- (घ) स राजा तान् अकथयत् ।
- (ङ) राजा याचकेभ्यः दानं ददाति स्म।
उत्तर………
- (क) अभीष्टवस्तूनि प्राप्य के सन्तुष्टाः आसन्?
- (ख)कुत्र विचरन् राजा अचिन्तयत्?
- (ग) राजा पुत्रवत् काः पालयति स्म?
- (घ) स राजा कान् अकथयत् ।
- (ङ) राजा केभ्यः दानं ददाति स्म।
- अधोलिखित प्रश्नान् यथानिर्देशम् उत्तरत-
(क) ‘शक्रः तत्रैव अन्तर्हितः अभवत्।’ अस्मिन् वाक्ये विशेषणपदं किम् ?
उत्तर..अन्तर्हितः
(ख) ‘सत्यबलेन तस्य चक्षुः प्रतिष्ठितम् अभवत्।’ अस्मिन् वाक्ये कर्तृपदम् किम् ?
उत्तर..चक्षुः
(ग) ‘जनाः तं देशम् आयान्ति स्म।’ अस्मिन् वाक्ये विशेष्यपदं किम् ?
उत्तर… देशम्
(घ) ‘अर्थिनःतु धनलाभमात्रेण सन्तोषं भजन्ते।’ अत्र ‘परितोषः’ अस्मिन् अर्थे किं पदं प्रयुक्तम् ?
उत्तर….सन्तोषं
(ङ) ‘शतयोजनपर्यन्तं शैलानां पारं च द्रष्टुं समर्थः भव।’ अत्र ‘असमर्थः’ अस्य विलोमपदं किं प्रयुक्तम् ?
उत्तर…समर्थः
(च) ‘बोधिसत्त्वः शिवीनां राजा अभवत्।’ अत्र क्रियापदं किम् ?
उत्तर… अभवत्
- समुचितम् अर्थ मेलयत –
- (क) शैलानाम्…… नेत्रम्
- (ख) शक्रः………स्वस्य
- (ग) आत्मनः ………..पर्वतानाम्
- (घ) चक्षुः ………इन्द्रः
- (ङ) उत्पाट्य………भूपतिः
- (ङ) महीपालः ……..निष्कास्य
उत्तर...
- (क) शैलानाम्…..पर्वतानाम्
- (ख) शक्रः………इन्द्रः
- (ग) आत्मनः ………..स्वस्य
- (घ) चक्षुः ………नेत्रम्
- (ङ) उत्पाट्य………निष्कास्य
- (ङ) महीपालः ……..भूपतिः
6…अधोलिखितानि वाक्यानि कथाक्रमानुसारं लिखत –
(क) स बाल्यात् एव वृद्धोपसेवी, विनयशीलः शास्त्रपारङ्गतः च आसीत् ।
(ख) राज्ञः दानशीलताम् आकर्ण्य देशान्तरेभ्योऽपि जनाः तं देशम् आयान्ति स्म।
(ग) कारुण्य-औदार्यादिसद्गुणोपेतः स नगरस्य समन्ततः धन-धान्यसमृद्धाः दानशालाः अकारयत् ।
(घ) मम अर्थिनः तु धनलाभमात्रेण सन्तोषं भजन्ते ।
(ङ) अथ कदाचित् दानशालासु विचरन् स राजा बहुधनलाभेन सन्तुष्टानाम् अर्थिनां विरलसङ्ख्यां विलोक्य अचिन्तयत्।
(च) जनकल्याणकर्मसु रतः असौ पुत्रवत् प्रजाः पालयति स्म।
(छ) तत्र अर्थिनां समूहः अन्न-पान-वसन-रजत-सुवर्णादिकानि अभीष्टानि वस्तूनि प्राप्य सन्तुष्टः अभवत् ।
(ज) अथ एकदा भगवान् बोधिसत्त्वः बहुजन्मार्जितपुण्यफलैः शिवीनां राजा अभवत् ।
उत्तर….
- (क) अथ एकदा भगवान् बोधिसत्त्वः बहुजन्मार्जितपुण्यफलैः शिवीनां राजा अभवत् ।
- (ख) स बाल्यात् एव वृद्धोपसेवी, विनयशीलः शास्त्रपारङ्गतः च आसीत् ।
- (ग) जनकल्याणकर्मसु रतः असौ पुत्रवत् प्रजाः पालयति स्म।
- (घ)कारुण्य-औदार्यादिसद्गुणोपेतः स नगरस्य समन्ततः धन-धान्यसमृद्धाः दानशालाः अकारयत् ।
- (ङ) तत्र अर्थिनां समूहः अन्न-पान-वसन-रजत-सुवर्णादिकानि अभीष्टानि वस्तूनि प्राप्य सन्तुष्टः अभवत् ।
- (च) राज्ञः दानशीलताम् आकर्ण्य देशान्तरेभ्योऽपि जनाः तं देशम् आयान्ति स्म।
- (छ) अथ कदाचित् दानशालासु विचरन् स राजा बहुधनलाभेन सन्तुष्टानाम् अर्थिनां विरलसङ्ख्यां विलोक्य अचिन्तयत्।
- (ज) मम अर्थिनः तु धनलाभमात्रेण सन्तोषं भजन्ते ।
7…प्रसङ्गानुसारम् अर्थ चिनुत –
- (क) राज्ञः दानशीलताम् आकर्ण्य जनाः तं देशम् आयान्ति स्म।
(i) श्रुत्वा (ii) मत्वा (iii) प्राप्य
उत्तर….श्रुत्वा
- (ख) राज्ञः नेत्रदानार्थ निश्चयं ज्ञात्वा अमात्याः विषण्णाः भूत्वा अवदन् ।
(i) विमुखाः(ii) खिन्नाः (iii) प्रसन्नाः
उत्तर…खिन्नाः
- (ग) यदि भवान् प्रीतः, तदा त्वत्तः एकस्य चक्षुषः दानम् इच्छामि।
(i) श्रोत्रस्य (ii) गात्रस्य (iii) नेत्रस्य
उत्तर…..नेत्रस्य
- (घ) एकदा राजा सरोवरस्य समीपे विहरति ।
(i) तडागस्य (ii) नगरस्य (iii) नद्याः
उत्तर…..तडागस्य
- (ङ) न अयं चिरं परिक्लेशम् अनुभवितुम् अर्हति।
(i) एषः(ii) सः(iii) तत्
उत्तर……एषः
- (च) सकलं ब्रह्माण्डं व्याकुलं सञ्जातम्।
(i) सम्पूर्णम्(ii) परिपूर्णम्(iii) गभीरम्
उत्तर….सम्पूर्णम्
8..अधः केचन विग्रहाः दत्ताः। कोष्ठकात् चित्वा क्रमानुसारं समस्तपदानि लिखत-
- समास-विग्रहाः ………………….समस्तपदानि
- (क) निर्गता बाधा यस्याः सा……….वृद्धोपसेवी
- (ख) धान्येन समृद्धाः ……… विनयशीलः
- (ग) विनयः शीलं यस्य सः …….. धान्यसमृद्धाः
- (घ) वृद्धान् उपसेवितुं शीलं यस्य सः …….. निर्बाधा
- (ङ) शक्रस्य प्रभावेण ……….. शक्रप्रभावेण
- (च) शास्त्रेषु पारङ्गतः यः सः …… शस्त्रपारङ्गतः
उत्तर….
- समास-विग्रहाः ………………….समस्तपदानि
- (क) निर्गता बाधा यस्याः सा……….निर्बाधा
- (ख) धान्येन समृद्धाः ………धान्यसमृद्धाः
- (ग) विनयः शीलं यस्य सः ……..विनयशीलः
- (घ) वृद्धान् उपसेवितुं शीलं यस्य सः ……..वृद्धोपसेवी
- (ङ) शक्रस्य प्रभावेण ……….. शक्रप्रभावेण
- (च) शास्त्रेषु पारङ्गतः यः सः …… शस्त्रपारङ्गतः
- अधोलिखितानां सूक्तीनाम् अधः सम्बद्धाः पाठान्तर्गतपङ्ङ्क्तयः लिख्यन्ताम् –
(क) न त्वहं कामये राज्यं न स्वर्ग नापुनर्भवम् ।
(ख) हुतं च दत्तं च सदैव तिष्ठति ।
(ग) क्षयम् आयाति सञ्चयात् ।
उत्तर…
- (क)नाहं स्वर्ग न मोक्षं वा कामये ।
- (ख)निधानतां याति हि दीयमानम्
- (ग)अदीयमानं निधनैकनिष्ठम्।
10..अधोलिखितानां वाक्यानां सम्मुखे दत्तेषु भावेषु उचित-भावस्य सम्मेलनं क्रियताम् –
- वाक्यानि…………………………………भावः
- (क) असौ पुत्रवत् प्रजाः पालयति स्म। ………दानवीरता
- (ख) सः नगरस्य समन्ततः दानशालाः अकारयत् ।……… दुःखम्
- (ग) ममार्थिनस्तु धनलाभमात्रेण सन्तोषं लभन्ते।…….. स्नेहः
- (घ) राज्ञः नेत्रदाननिश्चयं ज्ञात्वा अमात्याः विषण्णाः जाताः ।……. उदारता
- (ङ) अहं भवते चक्षुर्द्वयमेव प्रयच्छामि।………… निराशा
उत्तर…..वाक्यानि…………………………………भावः
- (क) असौ पुत्रवत् प्रजाः पालयति स्म। ………स्नेहः
- (ख) सः नगरस्य समन्ततः दानशालाः अकारयत् ।………दानवीरता
- (ग) ममार्थिनस्तु धनलाभमात्रेण सन्तोषं लभन्ते।……..निराशा
- (घ) राज्ञः नेत्रदाननिश्चयं ज्ञात्वा अमात्याः विषण्णाः जाताः ।……. दुःखम्
- (ङ) अहं भवते चक्षुर्द्वयमेव प्रयच्छामि।…………उदारता
Vangamayam Tapah Sanskrit Class 10
Thak Pratyay Parichaya Udaharan