वेदान्त दर्शन के अनुसार अज्ञान क्या है? क्या अज्ञान का अर्थ ज्ञान का अभाव है?
वेदान्त दर्शन में अज्ञान का दूसरा नाम क्या है?.. प्रस्तुत लेख से सब स्पष्ट हो जायेगा।
वेदान्त में अज्ञान को अविद्या या माया के रूप में जाना जाता है। अज्ञान से अभिप्राय ज्ञान का अभाव नहीं है।
इसके बारे में कहा गया है कि…..
अज्ञान न तो सत् है, न ही असत् है बल्कि यह सत् और असत् के बीच का है, अनिर्वचनीय है।
अज्ञानम् तु सदसद्भ्यामनिर्वचनीयम् त्रिगुणात्मकंज्ञानविरोधीभावरूपं यत्किञ्चिदिति वदन्त्यहमज्ञ इत्याद्यनुभवात्। ” देवात्मशक्तिं स्वगुनैर्निगुढाम् ” इत्यादिश्रुतेश्च।
अर्थात..अज्ञान सत् और असत् दोनों नहीं है, अतः यह अनिर्वचनीय है।त्रिगुणात्मक है, ज्ञान विरोधी है तथा भाव रूप है।
(आत्मा का साक्षात्कार जब तक न हो तब तक अज्ञान भाव रूप में माना जाता है।आत्म ज्ञान हो जाने पर अज्ञान विनष्ट हो जाता है )
यह ऐसा है या उस तरह का है, आदि तरह की निश्चित सीमा से अज्ञ होने के कारण यत्किञ्चित् है। ऐसा वेदन्तियों का कथन है।मैं अज्ञानी हूं इत्यादि अनुभवों का प्रत्यक्ष आभास ही अज्ञान के भाव रूप होने में प्रमाण है।श्रुति वाक्य भी इसे प्रमाणित करता है.. देवात्मा की शक्ति अपने गुणों से आवृत्त है।
वेदान्त दर्शन के अनुसार अज्ञान क्या है.
अज्ञान के भेद
यह अज्ञान यद्यपि एक ही है, फिर भी इसके दो भेद बताये गये हैं।
1. व्यष्टि और 2.समष्टि।
“इदं अज्ञानं समष्टिव्यष्टि अभिप्रयेनैकमनेकमिति च व्यवह्रियते”।
अर्थात..यह अज्ञान समष्टि और व्यष्टि दो अभिप्रयों के कारण कहीं एक रूप में कहीं अनेक या बहुवचन में प्रयुक्त किया जाता है।
समष्टि
सम् उपसर्ग अश् धातु तथा क्तिन् प्रत्यय से समष्टि शब्द बना है, जिसका अर्थ है सबको व्याप्त करने वाला।अज्ञान के लिये समष्टि शब्द का प्रयोग समुदाय, समूह अर्थ में किया गया है।
नोट.. वेदान्त में अज्ञान की समष्टि के लिये माया शब्द का भी प्रयोग किया गया है।
जिस प्रकार अनेक वृक्षों के लिये समूह के अभिप्राय से ,समुदाय के अर्थ में वन के नाम से, एक संख्यासूचक शब्द का प्रयोग होता है,तथा जलकणों के समूह को जलाशय कहा जाता है,उसी प्रकार अनेक संख्या में प्रतीयमान अनेकों जीव में स्थित अज्ञान के समूह को,समष्टि की आकांक्षा रूप में उन सब के एक होने के सूचक का प्रयोग होता है।
आजामेकाम् यह श्रुति वचन इसे प्रमाणित करता है।
प्रत्येक जीव में अज्ञान पृथक-पृथक होता है।जीव अनेक हैं, अतः अज्ञान भी अनेकत्व से युक्त है।
इयं समष्तिरुत्कृष्टोपाधितया विशुद्धसत्वप्रधाना..अर्थात अज्ञान का यह प्रकार यह व्यष्टि की अपेक्षा उत्कृष्ट उपाधि वाली होने के कारण रागादिदोष शून्य तथा शुद्ध सत्व गुण प्रधान है।
विशुद्ध सत्व अर्थात.. ईश्वर में स्थित माया या अज्ञान में केवल सत्व गुण होता है। रजस् और तमस् गुण बिल्कुल नहीं होता है।ईस्वर में स्थित अज्ञान रजस् और तमस् को अभिभूत अर्थात अपने वश में किये रहता है, स्वयं पराभूत नहीं होता।
“एतदुपहितं चैतन्यं सर्वज्ञत्वसर्वेश्वरत्वसर्वनियन्तृत्वादिगुणकंअव्यक्तं अन्तर्यामी जगत्कारणमीश्वर इति च् व्यपदिश्यते सकलज्ञानावभासकत्वात् ‘ यः सर्वज्ञः सर्ववित् ‘ इति श्रुतेः।”
अर्थात..इस उत्कृष्ट उपाधि से युक्त चैतन्य को सर्वज्ञाता, सबका ईश्वर, सर्व नियन्ता आदि गुण वाला,
अव्यक्त अन्तर्यामी, संसार का कारण स्वरूप तथा ईश्वर आदि नामों से अभिहित किया जाता है।जो सर्व ज्ञाता है, सर्व वित् है इत्यादि श्रुति वाक्यों के अनुसार यह संपूर्ण अज्ञान को प्रकाशित करने वाला है।
ईइश्वरस्येयमसमष्टिरखिलकारणत्वात् कारणशरीरमानन्दप्रचुरत्वात्कोशवदाच्छाद कत्वाच्चानन्दमयकोशः सर्वोपरमत्वात्।
अर्थात…ईश्वर की समष्टि उपाधि वाली माया या अज्ञान सबका मूलभूत कारण है,अतः इसे कारण शरीर आनन्द की प्रचुरता होने के कारण आनन्दमय कोश कहा जाता है।
तथा सूक्ष्मऔर स्थूल जगत् प्रपञ्च के लय स्थान होने के कारण सुषुप्ति कहा जाता है।
व्यष्टि..
इयं व्यष्टिर्निकृष्टोपाधितया मलिनसत्व प्रधाना।
अज्ञान का यह प्रकार, निकृष्ट उपाधि वाला होने के कारण मलिन सत्व गुण प्रधान है।
समस्त अज्ञान के भिन्न भिन्न रूप को भिन्न भिन्न ज्ञान का विषय मान कर विभिन्न जीवों में अलग अलग देखना व्यष्टि अज्ञान है।
क्योंकि यह अज्ञान जीव में स्थित है, और जीव ईश्वर के समक्ष निकृष्ट है, अतः जीव में स्थित यह अज्ञान निकृष्ट है। इसमें स्थित सत्व, रजस् तथा तमस् गुणों से पराभूत होने कारण यह मलिन होता है।
जैसे दर्पण पर धूल जम जाने के कारण प्रतिबिम्ब स्वच्छ नहीं दिखता है,उसी प्रकार सत्व, रजस् तमस् गुणों से आवृत्त होने के कारण चिदात्मा सुव्यक्त, प्रतिबिम्बित नहीं होता है।
एतदुपहितम् चैतन्यमल्पज्ञत्वानीश्वरत्वादिगुणयुक्तः प्राज्ञ इति उच्यते, एकाज्ञानाभावसकत्वात्
इस निकृष्ट उपाधि से उपहित चैतन्य को अल्पज्ञता, अनीश्वरत्व आदि गुणों से युक्त होने के कारण तथा एक ही अज्ञान का प्रकाशक होने के कारण प्राज्ञ कहाजाता है।अस्पष्ट उपाधि से युक्त होने कारण यह एक का ही प्रकाशक है, अनेक का नहीं।इसी कारण इसे प्राज्ञ कहा जाता है।
इस व्यष्टि अज्ञान की यह उपाधि अहंकार का कारण, कारण शरीर, तथा…..आनन्द की अधिकता तथा शुद्ध चैतन्य को कोश के समान ढक लेने के कारण आनन्दमय कोश,कहा जाता है।
सबका उपरमण होने के कारण सुषुप्ति कहा जाता है।तथा स्थूल एवं सूक्ष्म शरीर प्रपञ्च् के लीन होने का आधार से लय स्थान कही जाती है।
अज्ञान क्या है.अज्ञान की शक्तियां..
अज्ञान की दो शक्तियां हैं…
अज्ञानस्यावरण विक्षेपनामकस्ति शक्तिद्वयं..
इस अज्ञान की 1..आवरण और2. विक्षेप नाम की दो शक्तियां हैं।
1..आवरण शक्ति..
आवरण शक्ति का कार्य है किसी वस्तु के वास्तविक स्वरूप पर आवरण अर्थात पर्दा डाल देना,जिससे वस्तु के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान न हो सके।
जीव की दृष्टि के सामने पर्दा डाल कर सत् चित् आनन्द स्वरूप आत्मा को आवृत्त करने वाली शक्ति को आवरण शक्ति कहते हैं।
जिस प्रकार मेघ का छोटा टुकड़ा अनेकों योजन तक विस्तृत सूर्य को देखने वालेके नेत्रों के आगे से ढक कर सीमित कर देता है।अर्थात देखने वाले की दृष्टि मेघ के परे सूर्य को नहीं देख पाती है, उसी प्रकार सीमित अज्ञान भी असीमित, अजन्मा, और असांसारिक आत्मा को अवृत्त कर देता है।
जिस प्रकार सूर्य को देखने वाला मूढ़ व्यक्ति अपनी दृष्टि के सामने मेघ को देख कर सूर्य को प्रकाश रहित समझता है,उसी प्रकार मूढ़ और साधारण व्यक्ति आत्मा को जन्म मरण आदि बन्धनों से बंधा हुआ समझते हैं।
नोट..वेदन्तियों के अनुसार बन्धन और मोक्ष केवल प्रतीति मात्र हैं, आत्मा इन सब से परे है.।
2..विक्षेप शक्ति..
विक्षेप शक्ति वह है जो रस्सी विषयक अज्ञान द्वारा आच्छादित रस्सी में अपनी शक्ति द्वारा सर्प आदि की उद्भावना के समान ,
अज्ञान से आवृत्त आत्मा में ही आकाश आदि प्रपञ्च की उद्भावना कराती है, यह ऐसी शक्ति है।
अतः कहा गया है..विक्षेपशक्तिर्लिन्गादिब्र्हमाण्डान्तं जगत्सृजेदिति।
अर्थात. विक्षेप शक्ति ही लिङ्ग.. सूक्ष्म दृष्टि से ले कर ब्रह्माण्ड पर्यन्त संसार की रचना करती है।
अज्ञान क्या है.. यह इस प्रकार समझा जा सकता है…
अज्ञान की यह शक्ति मिथ्या पदार्थों को उत्पन्न करने वाली है। अर्थात अज्ञान की पहली आवरण शक्ति द्वारा आवृत्त किये गये,पदार्थ पर इस दूसरी शक्ति द्वारा ब्रह्मा से लेकर जीव पर्यन्त, सम्पूर्ण जगत की सृष्टि की जाती है।
आवरण शक्ति ने अन्धकार में पड़ी हुई रस्सी के वास्तविक स्वरूप को ढक दिया,
तथा दूसरी शक्ति नें उस रस्सी में सर्प की भावना का आरोप कर दिया, यही अज्ञान है।