Aagya Gurunaam Hi Avicharaniya Class 10। आज्ञा गुरूणां हि अविचारणीया मणिका कक्षा 10 चतुर्थः पाठः NCERT Solution हिन्दी अनुवाद तथा पाठ के अभ्यास कार्य का समाधान।
इस पाठ का सार यह है…. किसी नगर में चन्द्र नाम के राजा थे। उनके महल में वानरों का समूह तथा भेंड़ों का समूह रहता था।एक भेंड़ रसोई घर में घुस कर जो कुछ भी देखता उसे खा जाता। इस कारण वह प्रताड़ित भी किया जाता था , इस कारण कलह बढ़ने लगा।
यह देख कर वानरों के मुखिया नें सभी वानरों को महल छोड़ देने को कहा परन्तु वानरों नें उसकी बात नहीं मानी। अगले दिन महानस में प्रवेश करने पर रसोईये नें मेष को जलती हुई लकड़ी से मारा जिससे भेंड़ के शरीर में आग लगा गई, भेंड़ घुड़साल में घुस गया वहां भी आग फैलने से अनेक घोड़े जल गये। राजा ने वैद्यों को बुला कर शीघ्र उपचार करने को कहा… वैद्यों नें उपचार बताया कि बन्दरों की चर्बी से इन घोड़ों के घाव वैसे ही गायब हो जायेंगे जैसे सूर्य के प्रकाश से अन्धेरा गायब हो जाता है। यह सुन कर वानर पश्चाताप करने लगे कि काश!! हमने अपने स्वामी की बात मानी होती।
पाठ….
(अद्य शिक्षक-दिवसः। आचार्यमहोदयः कक्षां प्रविशति। शिष्याः गुरुवन्दनां कुर्वन्ति ।)
(आज शिक्षक दिवस है। आचार्य महोदय कक्षा में प्रवेश करते हैं। शिष्य गुरु वन्दना करते हैं।)
अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥
अनुवाद….जिस गुरु नें अज्ञान रूपी अन्धकार से अन्धे बने हुए शिष्य की आँखों को ज्ञान रूपीअंजन की सलाई से खोल दी, उस पूज्य गुरु को हमारा प्रणाम है।
आचार्यः…(प्रविश्य) अहो ! अतिमधुरः स्वरः । वत्साः ! भवन्तः जानन्ति किम्, अत्र कस्मै प्रणामः क्रियते
आचार्य.. ( प्रवेश करके)अहो!!अति मधुर स्वर है (गान है)। बच्चों!! क्या आप जानते हैं कि यहाँ किसे प्रणाम किया जा रहा है?
राकेशः(विचिन्त्य) ‘तस्मै श्रीगुरवे नमः ।’ अत्र तु गुरवे एव प्रणामः क्रियते ।
राकेश… (सोच कर)’उस गुरु जी को प्रणाम’ यहाँ गुरु जी को ही प्रणाम किया जा रहा है।
आचार्यः…शोभनम् । ‘गुरुः’ इति शब्दस्य कोऽर्थः ?
आचार्य…. सुन्दर है। गुरु इस शब्द का क्या अर्थ है।
सुमेधा…..ननु आचार्य एव ।
सुमेधा…. निश्चित रूप से आचार्य ही है।
आचार्यः….शोभनम्। परं भवन्तः जानन्ति किं ‘गुरुः’ शब्दस्य अन्येऽपि अर्थाः भवन्ति ।
आचार्य… बहुत अच्छा। परन्तु क्या आप सब जानते हैं कि गुरु इस शब्द के और भी कई अर्थ होते हैं।
ऋचा….किम् अस्य अन्येऽपि अर्थाः भवन्ति ?
ऋचा….. क्या!! इस शब्द के अन्य अर्थ भी होते हैं?
आचार्यः …..आम्। शब्दार्थं दृष्ट्वा वदन्तु।
आचार्य…… हाँ..शब्दार्थ देख कर बोलो..
राधिका…..ज्ञानवृद्धः, आदरणीयः, गरिष्ठः ।
राधिका…. अत्यन्त ज्ञानी, आदरणीय / सम्माननीय, और मत्वपूर्ण।
आचार्यः…आम् ! ज्ञातव्यं यत् ज्ञानवृद्धः यदि बालोऽपि स्यात् सोऽपि पूजनीयः ।
आचार्य… हाँ.. यह जान लेना चाहिये कि यदि बालक भी ज्ञानी हो तो वह भी पूजनीय होता है।
अभिषेकः…..आम् ! अस्माभिः पठितम् अपि । अष्टावक्रस्तु द्वादशवर्षीय एव आसीत् परन्तु सर्वैः वन्द्यः जातः ।
अभिषेक… हाँ.हमारे द्वारा भी पढ़ा गया है कि अष्टावक्र तो द्वादश.. 12 वर्ष के ही थे परन्तु वे सबके पूजनीय हो गये थे।
आचार्यः …साधु ! एवं युष्मासु अपि कश्चित् स्वविद्यया ज्ञानेन च गुरुः भवितुं शक्नोति ।
आचार्य… बहुत अच्छा! इसी प्रकार तुम में से भी कोई अपनी विद्या और ज्ञान से गुरु हो सकता है।
ऋचा….किं सत्यम्?
ऋचा… क्या!! सच में?
आचार्यः….आम् ! श्रावयामि एकां कथां यत्र वानराणां वरिष्ठस्य यूथपतेः उपदेशम् अवमत्य वानराः दुःखिनः भवन्ति
आचार्य.. हाँ… मैं एक कथा सुनाता हूँ, जिसमें वानरों के सबसे बड़े समूह के स्वामी की बात को न मान कर वानर दुखी हो गये।
सर्वे छात्राः…. श्रोतुमिच्छामः
सभी छात्र.. हम सब (इस कथा को)सुनना चाहते हैं..
आज्ञा गुरूणां हि अविचारणीया
कस्मिंश्चित् नगरे चन्द्रो नाम भूपतिः प्रतिवसति स्म। तस्य पुत्राः वानरक्रीडारताः वानरयूथं नित्यमेव विविधैः भोज्यपदार्थैः पुष्टिं नयन्ति स्म। तस्मिन् राजगृहे बालवाहनयोग्यं मेषयूथम् आसीत्। तेषां मेषाणां मध्ये एको मेषः वानरक्रीडारताः अहर्निशं महानसं प्रविश्य यत् पश्यति तद् भक्षयति । ते च सूपकाराः यत्किञ्चित् काष्ठं, मृण्मयं भाजनं कांस्यताम्रपात्रं वा पश्यन्ति तेन तम् आशु ताडयन्ति स्म ।
शब्दार्थ-कस्मिंश्चित्- किसी, नगरे = नगर में, प्रतिवसति स्म= रहता था , वानर-क्रीडा-रताः- बन्दरों के साथ खेलों में लगे रहते हुए, वानरयूथम्-बन्दरों के समूह को, भोज्यपदार्थैः =खाने की सामग्री से, पुष्टिम्-नयन्ति स्म-पुष्ट बनाते थे ,राजगृहे-राजा के घर में, बाल-वाहनयोग्यम्=बच्चों की सवारी के लायक,मेष-यूथम्=भेड़ों का झुंड , मेषाणां मध्ये-भेड़ों के बीच में , जिह्वालोलुपतया-जीभ के(स्वाद के )लालच होने से, अहर्निशम्=दिन रात, महानसम्=रसोई में प्रविश्य=प्रवेश करके, यत्-जो (कुछ) , पश्यति-देखता था, तत्- उस चीज को, भक्षयति-खा जाता था, सूपकाराः- पाचक, रसोइए, यत्किञ्चित्- जिस किसी, काष्ठम्-लकड़ी , मृण्मयं-मिट्टी के, भाजनम्-पात्र को, कांस्य ताम्रपात्रम्-कांस या तांबे के बरतन को, पश्यन्ति-देखते, तेन-उससे,आशु-शीघ्र ही , ताडयन्ति स्म=मारते थे।
अर्थ-किसी नगर में चन्द्र नाम का राजा रहता था। उसके पुत्र बन्दरों के साथ खेलने में लगे रहते थे , तथा बन्दरों के झुण्ड को सदा ही अनेक प्रकार के भोजन-पदार्थों से हृष्ट-पुष्ट बनाते थे। उस राजा के घर में बालकों की सवारी के योग्य एक भेड़ों का समूह था। उन भेड़ों के बीच में एक भेड़ जीभ के स्वाद के लालच के कारण दिन-रात रसोई में घुसकर जो कुछ भी देखता था उसे खा जाता था। तथा वे रसोइए जिस किसी भी लकड़ी, मिट्टी के बने पात्र / बर्तन अथवा कांसे या तांबे के बर्तन को देखते थे उसी के द्वारा शीघ्र उसको मारते थे।
संधि कार्य…
- कस्मिंश्चित्= कस्मिन् +चित् (व्यञ्जन संधि )
- चन्द्रो नाम =चन्द्रः नाम (विसर्ग संधि )
- किञ्चित्=किम् +चित् (व्यञ्जन संधि)
- एको मेषः = एकः +मेषः (विसर्ग संधि)
समास…
- वानरक्रीडारताः= वानराणां क्रीडायां रताः (षष्ठी व सप्तमी तत्पुरुष )
- वानरयूथं= वानराणां यूथं ( षष्ठी तत्पुरुष)
- अहर्निशं=अहः च निशा च (द्वन्द्व समास)
- सूपकाराः=सूपं कुर्वन्ति इति ( उपपद तत्पुरुष)
प्रकृति प्रत्यय…
- प्रविश्य = प्र +विश् +ल्यप्
मेषस्य सूपकाराणां च कलहम् अवेक्ष्य नीतिविदाम् अग्रणीः वानरयूथपतिः अचिन्तयत्-‘एतेषां कलहो न वानराणां हिताय।’ एवं विचार्य स यूथपः सर्वान् कपीन् आहूय रहसि अवदत्–
सूपकाराणां मेषेण सह एषः कलहः नूनं भवतां विनाशकारणं भविष्यति । उक्तम् हि-
तस्मात् स्यात् कलहो यत्र गृहे नित्यमकारणः ।
तद्गृहं जीवितं वाञ्छन् दूरतः परिवर्जयेत् ॥ 1 ॥
शब्दार्थ-…मेषस्य=भेड़ के ,सूपकाराणाम्-रसोईयों के, कलहम्-=झगड़े को, अवेक्ष्य=देख कर, नीतिविदाम्=नीति जानने वालों में, अग्रणीः-=मुख्य नायक, मुखिया, यूथपतिः=समूह के स्वामी, अचिन्तयत्=सोचा, एतेषाम्-इनका( बन्दरों के ), हिताय=कल्याण के लिए, विचार्य-विचार करके, यूथपः- समूह का रक्षक / समूह का स्वामी, कपीन्-बन्दरों को, आहूय=बुला कर, रहसि = एकान्त में,नूनम्=निश्चय ही, भवताम्=आपके, विनाश=विनाश का,कारणम्= कारण, भविष्यति=-होगा, उक्तम्= कहा गया है, हि-निश्चय ही, यत्र=जिस, गृहे=घर में, अकारण=बिना कारण के,कलहः= झगड़ा,स्यात्-होता हो , जीवितम् = जीवन, इच्छन्-चाहने वाले (प्राणी), तद्गृहम्=उस घर को, दूरतः-दूर से ही , परिवर्जयेत्-छोड़ देना चाहिये ,
हिन्दी अनुवाद..-भेड़ के तथा रसोईयों के झगड़े को देखकर नीति जानने वालों में अग्रणी वानरों के स्वामी नें सोचा – ‘इनका यह कलह / झगड़ा बन्दरों के कल्याण के लिए नहीं है।’ इस प्रकार सोचकर बन्दरों के समूह के उस स्वामी ने सभी बन्दरों को बुलाकर एकान्त में कहा….
हिन्दी अनुवाद =-रसोईयों का उस भेड़ के साथ (होने वाला) यह झगड़ा अवश्य ही आपके विनाश का कारण होगा। कहा भी गया है—जिस घर में नित्य बिना कारण झगड़ा होता रहता हो, अपना जीवन चाहने वाला प्राणी को उस घर को दूर से (ही) छोड़ देना चाहिये।
संधि कार्य…
- तद्गृहं = तत् +गृहं ( व्यञ्जन संधि)
- जीवितं वाञ्छन् = जीवितम् + वाञ्छन्(अनुस्वार संधि)
प्रकृति प्रत्यय..
- लोलुपतया = लोलुप +तल्
- विचार्य = वि + चर् + ल्यप्
- उक्तम् = वच् + क्त
- आहूय = आ + ह्वे + ल्यप्
Aagya Gurunaam Hi Avicharaniya
ततः सर्वेषां संक्षयो न भवेत् , तदेतद् राजभवनं परित्यज्य वनं गच्छामः। यतः…..
कलहान्तानि हर्म्याणि कुवाक्यान्तं सौहृदम्।
कुराजान्तानि राष्ट्राणि कुकर्मान्तं यशो नृणाम्।।
अन्वयः-हर्याणि कलहान्तानि (भवन्ति), सौहृदम् च कुवाक्यान्तम् (भवति) राष्ट्राणि कुराजान्तानि (भवन्ति) नृणां यशः (च) कुकर्मान्तं (भवति)।
शब्दार्थ-संक्षयः = विनाश, नृणाम्-मनुष्यों का , कलह-अन्तानि-झगड़े के कारण जिनका अन्त हो जाता है, हर्म्याणि =महल, च=और कु-वाक्य= बुरे वाक्य अन्तम्=अन्त , सौहृदम्-मित्रता कु-राज= बुरे शासन से
अर्थ-इस कारण .. कहीं हम सब का विनाश न हो जाय । तो इसलिये राज-भवन को छोड़कर हम वन को चले जाते हैं।
श्लोकार्थ….क्योंकि… आपसी कलह के कारण राजमहलों का अन्त हो जाता है। कुत्सित या बुरे वाक्य बोलने से मित्रता का अन्त हो जाता है। राष्ट्रों का अन्त दुष्ट राजाओं बुरे शासन के कारण हो जाता है, तथा लोगों के यश का अन्त उनके कुकर्म अर्थात बुरे कर्मों के कारण हो जाता है।
संधि कार्य..
- तदेतद्=तत् +एतद् ( व्यञ्जन संधि)
- कलहान्तानि= कलह +अन्तानि ( दीर्घ स्वर संधि)
- कुराजान्तानि =कुराज +अन्तानि ( दीर्घ स्वर संधि)
- कुकर्मान्तं=कुकर्म +अन्तम् ( दीर्घ स्वर संधि)
समास..
- राजभवनं.= राज्ञः भवनं (षष्ठी तत्पुरुष)
- कुवाक्यं = कुत्सितं वाक्यं ( कर्मधारय )
तस्य वचनम् अश्रद्धेयं मत्वा मदोद्धताः कपयः प्रहस्य अवदन्- ‘भो ! किमिदम् उच्यते ? न वयं स्वर्गसमानोपभोगान् विहाय अटव्यां क्षार- तिक्त-कषाय-कटु-रूक्षफलानि भक्षयिष्यामः ।’ तच्छ्रुत्वा साश्रुनयनो यूथपतिः सगद्गदम् उक्तवान्-‘रसनास्वादलुब्धाः यूयम् अस्य सुखस्य कुपरिणामं न जानीथ। अहं तु वनं गच्छामि।’
शब्दार्थ-अश्रद्धेयम् – श्रद्धा या विश्वास के अयोग्य, मत्वा= मान कर, मदोद्धताः = मद से मस्त , कपयः-= वानर, प्रहस्य=हंसकर, स्वर्गसमानोपभोगान्=स्वर्ग के समान उपभोगों को, विहाय= छोड़ कर, अटव्याम्=जंगल में, क्षार=खारे, तिक्त=तीखे , कषाय=कसैले, कटु=कडुवे, रूक्ष=रूखे, भक्षयिष्यामः=खायेंगे, तच्छ्रुत्वा= उसे सुनकर, साश्रुनयनः= आँसुओं से भरे हुए नेत्रों वाला , सगद्गदम्=गद्गद् या अस्पष्ट भावपूर्ण वाणी में, उक्तवान्= बोला। रसना-स्वाद-लुब्धाः- जिह्वा के स्वाद के लोभ में या लालच में , कुपरिणामम्-बुरे परिणाम को, न जानीथ=नहीं जानते हो ।
अर्थ-उसके वचन को श्रद्धा के योग्य न मानकर मद से युक्त बन्दरों ने हँसकर कहा-अरे! ये क्या कह रहे हैं? हम सब इन स्वर्ग के समान उपभोगों को छोड़कर जंगल में खारे, तीखे , कसैले, कड़वे तथा रूखे फल नहीं खायेंगे। यह सुनकर आँसुओं से भरे हुए नेत्रों वाले झुंड के स्वामी नें भावुक व अस्पष्ट वाणी में कहा -अरे, तुम इस जिह्वा के स्वाद के लालच में आकर इस (स्वर्ग के समान उपभोगों के) सुख के बुरे परिणाम को नहीं जानते हो । मैं तो वन में जा रहा हूँ।
संधि कार्य…
- साश्रुनयनो= स + अश्रुनयनः ( दीर्घ स्वर संधि )
- तच्छ्रुत्वा=तत् + श्रुत्वा ( व्यञ्जन संधि.. छत्व विधान )
- मदोद्धताः= मद +उद्धताः ( गुण संधि )
- स्वर्गसमानोपभोगान्=स्वर्गसमान + उपभोगान ( गुण संधि )
समास…
- अश्रद्धेयं= न श्रद्धेयं ( नञ् तत्पुरुष)
- मदोद्धताः= मदेन उद्धता: (तृतीया तत्पुरुष)
- यूथपतिः= यूथस्य पतिः ( षष्ठी तत्पुरुष )
- रसनास्वादलुब्धाः= रसनायाः स्वादेन लुब्धाः ( षष्ठी व तृतीया तत्पुरुष )
- कुपरिणामं= कुत्सितं परिणामं (कर्मधारय)
- साश्रुनयनः=अश्रूणि नयनयोः यस्य सः (बहुब्रीहि )
प्रकृति प्रत्यय..
- प्रहस्य = प्र +हस् + ल्यप्
- विहाय =वि + हा +ल्यप्
- उक्तवान् =वच् +क्तवतु
- मत्वा =मन् +क्त्वा
अथ अन्यस्मिन् अहनि स मेषो यावत् महानसं प्रविशति तावत् सूपकारेण अर्धज्वलितकाष्ठेन ताडितः । ऊर्णाप्रचुरः मेषः वह्निना जाज्वल्यमानशरीरः निकटस्थाम् अश्वशालां प्रविशति दाहवेदनया च भूमौ लुठति। तस्य क्षितौ प्रलुठतः तृणेषु वह्निज्वालाः समुत्थिताः ।
शब्दार्थ—अन्यस्मिन् अहनि = दूसरे दिन में , महानसं = रसोई /पाकशाला , सूपकारेण= रसोईये के द्वारा , अर्धज्वलितकाष्ठेन= आधी जली हुई लकड़ी के द्वारा, ताडितः= मारा गया, ऊर्णाप्रचुरः= ऊन से भरा हुआ , वह्निना=अग्नि से,जाज्वल्यमानशरीरः= जलते हुए शरीर वाला,अश्वशालां= घुड़साल, दाहवेदनया = जलने की पीड़ा से, भूमौ= भूमि पर, लुठति= लोटने लगा,
हिन्दी अनुवाद… उसके बाद दूसरे दिन वह मेष जैसे ही महानस =रसोई में गया वैसे ही रसोईये नें आधी जली हुई लकड़ी से उसे मारा। ऊन से भरा हुआ तथा आग से जलते हुए शरीर वाला वह मेष पास स्थित अश्वशाला में घुस गया तथा जलन की पीड़ा से परेशान वह भूमि पर लोटने लगा। उसके भूमि पर लोटने से घास के तिनकों में से आग की लपटें उठने लगीं।
ज्वालमालाकुलाः अश्वाः प्राणत्राणाय इतस्ततः अधावन् । तेषु केचिद् दग्धाः केचिद् अर्धदग्धाः केचन च पञ्चत्वं गताः । दग्धां हयशालां विज्ञाय सविषादः राजा शालिहोत्रज्ञान् वैद्यान् आहूय अपृच्छत्-‘हा! दग्धाः मे घोटकाः कथं रक्षणीयाः ? सपदि उपायः क्रियताम्।’ तदा राजवैद्यः प्रोवाच –
ज्वालमालाकुलाः=दहकती हुई आग की लपटों से व्याकुल हुए, अश्वाः= घोड़े ,प्राणत्राणाय=प्राण बचाने के लिए, इतस्ततः = इधर-उधर, अधावन्- दौड़ने लगे, तेषु =उनमें से, केचित्=कुछ, दग्धाः= जले गये, अर्धदग्धाः=आधे जले, केचन=कुछ., पञ्चतत्वंगताः =मृत्यु को प्राप्त हो गये अर्थात मर गये , दग्धाम्-जली हुई , विज्ञाय-जान कर /देख कर ,सविषादः =दुःख पूर्वक,शालिहोत्रज्ञान्- पशुओं की बीमारी को ठीक करने वाले चिकित्सकों को आहूय=बुलाकर,घोटकाः – घोड़े , रक्षणीयाः- बचाये जाएँ। सपदि=शीघ्र/जल्दी , प्रोवाच =कहा
अर्थ- दहकती हुई आग की लपटों के समूह से व्याकुल घोड़े प्राँण बचाने के लिए इधर-उधर भागने लगे। उनमें कुछ जल गये तथा कुछ अधजले हुए थे , तथा कुछ मृत्यु को प्राप्त हो गए अर्थात मर गये । जली हुई घुड़साल को देखकर अत्यन्त दुःखी मन वाले राजा ने पशुओं के चिकित्सकों को बुलाकर पूछा—हाय!! ये मेरे घोड़े कैसे बचाये जाऍं? शीघ्र ही कोई उपाय किया जाए। तब राजवैद्य ने कहा….
संधि कार्य..
- सूर्योदये =सूर्य + उदये (गुण संधि)
- प्रोवाच = प्र +उवाच (गुण संधि)
- ज्वालमालाकुलाः=ज्वालामाला + आकुला ( दीर्घ स्वर संधि)
- इतस्ततः= इतः +ततः (विसर्ग संधि )
समास
- अन्यस्मिन् अहनि =अन्याहनि (कर्मधारय समास)
- उर्णाप्रचुरः =उर्णया प्रचुरः ( तृतीया तत्पुरुष)
- राजवैद्यः = राज्ञः वैद्यः ( षष्ठी तत्पुरुष)
- सूर्योदये = सूर्यस्य उदये ( षष्ठी तत्पुरुष)
- जाज्वल्यमानशरीरः=जाज्वल्यमानं शरीरं यस्य सः (बहुब्रीहि)
- दाहवेदनया =दाहस्य वेदना तया (षष्ठी तत्पुरुष)
- ज्वालमालाकुलाः= ज्वालानां मालाभिः आकुलाः ( षष्ठी व तृतीया तत्पुरुष )
प्रकृति प्रत्यय…
- समुत्थिताः = सम् +उत् +स्था +क्त
- दग्धाः = दह् +क्त
- पञ्चत्वं= पञ्च +त्व
- रक्षणीया = रक्ष् +अनीयर
- ताडितः = ताड् +क्त
- गताः =गम् +क्त
श्लोक…..
कपीनां मेदसा दोषो वह्निदाहसमुद्भवः ।
अश्वानां नाशमभ्येति तमः सूर्योदये यथा ॥ ३ ॥
अन्वयः – अश्वानां वह्नि-दाह-समुद्भवः दोषः कपीनां मेदसा( तथैव) नाशम् अभ्येति, यथा सूर्योदये तमः (नाशम् अभ्येति)।
शब्दार्थ-…अश्वानाम्=घोड़ों का , वह्नि-दाह=आग के जलने से, समुद्भवः – उत्पन्न, दोषः=घाव , कपीनाम् – वानरों की , मेदसा=चर्बी से, तथा= उसी प्रकार। नाशम् अभ्येति = समाप्त हो जाता है, या नष्ट हो जाता है , यथा=जिस प्रकार , सूर्योदये=सूर्य के उदय होने पर, तमः = अन्धकार
अर्थ-घोड़ों का आग के जलने से घोड़ों के शरीर में उत्पन्न घाव बन्दरों की चर्बी से उसी प्रकार नष्ट हो जाता है जिस प्रकार सूर्य के निकलने पर (अन्धेरा समाप्त हो जाता है।)
‘यथोचितं क्रियताम्’ इति राजादेशं श्रुत्वा सर्वे भयत्रस्ताः कपयः अचिन्तयन् – ‘हा! हताः वयम् । अवधीरिताः अस्माभिः गुरुजनोपदेशाः ।’ उक्तम् हि-
श्लोक
मित्ररूपाः हि रिपवः सम्भाष्यन्ते विचक्षणैः ।
ये हितं वाक्यमुत्सृज्य विपरीतोपसेविनः ।। 4 ।।
अन्वयः- ये हितं वाक्यम् उत्सृज्य विपरीत उपसेविनः (ते) विचक्षणैः मित्ररूपाः हि रिपवः सम्भाष्यन्ते।
शब्दार्थ-यथोचितम् – जैसा उचित या सही हो , भयत्रस्ताः =डरे हुए, हताः=मारे गए। अवधीरिताः- अवहेलना किया या नहीं माना , गुरुजनोपदेशाः =गुरुजनों के उपदेश (शिक्षा)को , हितम् = हितकारी,वाक्यम् =बातों को, उत्सृज्य=छोड़ कर, ये-जो, विपरीत= उल्टा ,उपसेविनः= आचरण करते हैं, विचक्षणैः- बुद्धिमानों के द्वारा।, मित्ररूपाः- मित्र के रूप में , रिपवः= शत्रु , सम्भाष्यन्ते=कहे जाते हैं।
अर्थ-अतः जैसा उचित हो वैसा ही किया जाय । इस प्रकार राजा की आज्ञा सुनकर भयभीत हुए सब बन्दर सोचने लगे ‘हाय ! हम सब मारे गए। हमने अपने गुरु के उपदेशो की अवहेलना की। कहा गया है-
श्लोक अर्थ….कल्याणकारी वचन को छोड़कर जो उसके विपरीत आचरण करने वाले होते हैं, विद्वानों के द्वारा ऐसे व्यक्ति निश्चय ही मित्र के रूप में शत्रु कहे जाते हैं।
संधि कार्य..
- यथोचितं= यथा +उचितं (गुण संधि)
- राजादेशं = राज +आदेशं (दीर्घ स्वर संधि)
- गुरुजनोपदेशाः = गुरुजन +उपदेशाः (गुण संधि)
- विपरीतोपसेविनः=विपरीत +उपसेविनः (गुण संधि)
समास…
- यथोचितं= उचितं अनतिक्रम्य(अव्ययी भाव )
- राजादेशं= राज्ञः आदेशम् (षष्ठी तत्पुरुष)
- विपरीतोपसेविनः=विपरीतं उपसेवन्ते इति (उपपद तत्पुरुष)
- भयत्रस्ताः कपयः =भयत्रस्तकपयः (कर्मधारय)
- भयत्रस्ताः= भयात् त्रस्ताः (पञ्चमी तत्पुरुष)
- गुरुजनोपदेशाः= गुरुजनानाम् उपदेशाः (षष्ठी तत्पुरुष)
- हितं वाक्यम् =हितवाक्यं (कर्मधारय )
- मित्ररूपाः=मित्राणाम् रूपाः (षष्ठी तत्पुरुष )
प्रकृति प्रत्यय…
- श्रुत्वा =श्रु +क्त्वा
- उत्सृज्य =उत् +सृज् +ल्यप्
- त्रस्ताः = त्रस् +क्त
- उक्तम् = वच् +क्त
…….…………………………
पाठ आधारित अभ्यास कार्य…
- एकपदेन संस्कृतभाषया उत्तरत (मौखिक अभ्यासार्थम्) –
- (क) राजपुत्राः प्रासादे कैः सह क्रीडन्ति स्म?
- (ख) राजगृहे कीदृशं मेषयूथम् आसीत् ?
- (ग) जिह्वालोलुपतया मेषः कुत्र प्रविशति स्म ?
- (घ) के पाकशालां प्रविष्टं मेषं ताडयन्ति स्म?
- (ङ) केन जाज्वल्यमानशरीरः मेषः अश्वशालां प्रविशति ?
- (च) मेषस्य क्षितौ प्रलुठतः तृणेषु काः समुत्थिताः ?
- (छ) किमर्थम् अश्वाः इतस्ततः अधावन् ?
- (ज) केषां वह्निदोषः कपीनां मेदसा शाम्यति ?
- (झ) कस्य आदेशं श्रुत्वा सर्वे कपयः भयत्रस्ताः जाताः?
- (ञ) केषाम् आज्ञा अविचारणीया भवति ?
उत्तर.. – (क) वानरैः(ख) बालवाहनयोग्यम् (ग) महानसम् (घ) सूपकाराः(ङ) वह्निना (च) वह्निज्वालाः(छ) प्राणत्राणाय (ज) अश्वानाम् (झ) राज्ञः/नृपस्य(ञ) गुरूणाम् ।
पूर्णवाक्येन उत्तरत-..
- (क) जिह्वालोलुपतया मेषः अहर्निशं किं करोति स्म?
- (ख) सूपकाराः मेषं कैः वस्तुभिः ताडयन्ति स्म?
- (ग) मेषस्य सूपकाराणां च कलहम् अवेक्ष्य वानरयूथपतिः किम् अचिन्तयत्?
- (घ) मदोद्धताः कपयः वानरयूथपतिं किम् अवदन् ?
- (ङ) सविषादः राजा वैद्यान् आहूय किम् अकथयत्?
- (च) राजादेशं श्रुत्वा भयत्रस्ताः कपयः किम् अचिन्तयन्?
- (छ) केषां उपदेशाः नैव अवधीरणीयाः?
- (ज) नरः कीदृशं गृहं दूरतः परिवर्जयेत् ?
उत्तरम् –
- (क) जिह्वालोलुपतया मेषः अहर्निशं महानसं प्रविश्य यत् पश्यति स्म तद् भक्षयति स्म।
- (ख) सूपकाराः यत्किञ्चित् काष्ठं, मृण्मयं भाजनं, कांस्यताम्रपत्रं वा पश्यन्ति स्म तेन मेषं ताडयन्ति स्म।
- (ग) मेषस्य सूपकाराणां च कलहम् अवेक्ष्य वानरयूथपतिः अचिन्तयत्- ‘एतेषां कलहो न वानराणाम् हिताय’ इति ।
- ( घ) मदोद्धताः कपयः वानरयूथपतिम् अवदन्-भोः, किमिदमुच्यते? न वयं स्वर्गसमानोपभोगान् विहाय अटव्यां क्षार- तिक्त-कषाय-कटु-रूक्ष फलानि भक्षयिष्यामः इति ।
- ( ङ) सविषादः राजा वैद्यान् आहूय अकथयत्- ‘हा, दग्धाः मे घोटकाः कथं रक्षणीयाः? सपदि उपायः क्रियताम्’ इति ।
- (च) राजादेशं श्रुत्वा भयत्रस्ताः कपयः अचिन्तयन्- ‘हा हताः वयम्, अवधीरिताः अस्माभिः गुरुजनोपदेशाः।’
- (छ) गुरुजनानाम् उपदेशाः नैव अवधीरणीयाः।
- (ज) यस्मिन् गृहे अकारणं नित्यं कलहः स्यात् नरः तद्गृहं दूरतः परिवर्जयेत् ।
- अधोलिखितवाक्येषु स्थूलपदानि आधृत्य प्रश्ननिर्माणं कुरुत-
यथा-कथनम्-राजपुत्राः वानरयूथं भोज्यपदार्थैः पुष्टिं नयन्ति स्म।
प्रश्नः – राजपुत्राः वानरयूथं कैः पुष्टिं नयन्ति स्म ?
- (क) अश्वाः प्राणत्राणाय इतस्ततः अधावन् ।
- (ख) राजा वैद्यान् आहूय अश्वरक्षार्थम् अपृच्छत् ।
- (ग) सूपकारेण मेषः अर्धज्वलितकाष्ठेन ताडितः ।
- (घ) प्राज्ञः कलहयुक्तम् गृहं दूरतः परिवर्जयेत् ।
- (ङ) सूर्योदये तमः नश्यति ।
- (च) ज्वलन् मेषः अश्वशालां प्रविशति ।
उत्तरम् –
- (क) अश्वाः किमर्थं इतस्ततः अधावन् ?
- (ख) राजा कान् आहूय अश्वरक्षार्थम् अपृच्छत्?
- (ग) सूपकारेण मेषः केन ताडितः?
- (घ) कः कलहयुक्तम् गृहं दूरतः परिवर्जयेत् ?
- (ङ) सूर्योदय किं नश्यति ?
- (च) ज्वलन् मेषः कुत्र प्रविशति ?
- अधोलिखितान् प्रश्नान् यथानिर्देशम् उत्तरत-
(क) ‘कस्मिंश्चित् नगरे चन्द्रो नाम भूपतिः प्रतिवसति स्म।’ अत्र क्रियापदं किम् प्रयुक्तम्?
उत्तर. प्रतिवसति स्म
(ख) ‘एवं विचार्य सः यूथपः सर्वान् कपीन् आहूय रहसि अवदत्।’ अत्र ‘कपीन्’ पदस्य किं विशेषणपदं?
उत्तर.. सर्वान्
(ग) ‘मदोद्धताः कपयः प्रहस्य अवदन्।’ अस्मिन् वाक्ये किं कर्तृपदं प्रयुक्तम् ?
उत्तर.. कपयः
(घ) ‘हा दग्धाः मे घोटकाः कथं रक्षणीयाः?’ वाक्येऽस्मिन् ‘अश्वाः’ इत्यर्थे किं पदं प्रयुक्तम्?
उत्तर… घोटकाः
(ङ) ‘मेषः महानसं प्रविश्य यत् पश्यति तद् भक्षयति।’ अत्र ‘निर्गत्य’ पदस्य किं विलोमपदं प्रयुक्तम् ?
उत्तर… प्रविश्य
(च) ‘ज्वालमालाकुलाः’ पदस्य विशेष्यपदं पाठात् चित्वा लिखत।
उत्तर.. अश्वाः
- ‘क’ स्तम्भे विशेषणपदानि ‘ख’ स्तम्भे च विशेष्यपदानि दत्तानि, तेषां समुचितमेलनं कृत्वा लिखत-
- ‘क’ स्तम्भः…………………………..’ख’ स्तम्भः
- (क) कुवाक्यान्तम्,……………………मेषः
- (ख) मदोद्धताः………………………..यशः
- (ग) ऊर्णाप्रचुरः …………………….हर्याणि
- (घ) कुराजान्तानि…………………..यूथपतिः
- ( ङ)मृण्मयं……………………………कपयः
- (च) कलहान्तानि……………………राष्ट्राणि
- (छ) साश्रुनयनः ……………………सौहृदम्
- (ज) कुकर्मान्तम् ……………………भाजनम्
उत्तर…….
- ‘क’ स्तम्भः………………………..’ख’ स्तम्भः
- (क) कुवाक्यान्तम्……………सौहृदम्
- (ख) मदोद्धताः………………कपयः
- (ग) ऊर्णाप्रचुरः………………….मेषः
- (घ) कुराजान्तानि……………राष्ट्राणि
- (ङ) मृण्मयम्……………………भाजनम्
- (च) कलहान्तानि……………..हर्यम्याणि
- (छ) साश्रुनयनः………………..यूथपतिः
- (ज) कुकर्मान्तम्……………यशः
6…(अ) स्थूलाक्षराणि सर्वनामपदानि कस्मै प्रयुक्तानि ? समक्षं प्रदत्तस्थाने लिखत-
यथा – अस्माकं विनाशकारकः भविष्यति ।……… वानरेभ्यः
- (क) तस्य पुत्राः वानरैः सह क्रीडन्ति स्म।
- (ख) एतेषां कलहः न वानराणां हिताय ।
- (ग) सर्वेषां संक्षयः न भवेत् ।
- (घ) वयम् अटव्यां रूक्षफलानि नैव भक्षयिष्यामः ।
- (ङ) अहं तु वनं गच्छामि।
- (च) हा! दग्धा मे घोटकाः।
- (छ) अवधीरिताः अस्माभिः गुरुजनोपदेशाः ।
- (ज) यूयम् अस्य कुपरिणामं न जानीथ।
उत्तर……
- (क) राज्ञे/नृपाय
- (ख) मेषसूपकारेभ्यः
- (ग) वानरेभ्यः/कपिभ्यः
- (घ) वानरेभ्यः
- (ङ) वानरयूथपतये
- (च) राज्ञे/नृपाय/ चन्द्राय
- (छ) वानरेभ्यः
- (ज) वानरेभ्यः
(आ) कोष्ठकात् समुचितं पदं विचित्य रिक्तस्थानानि पूरयत-
- (क)……………….. कस्मिंश्चित् नगरे चन्द्रः भूपतिः प्रतिवसति स्म।(कस्याञ्चित्/कस्मिंश्चित्)
- (ख)………………एव राजगृहे मेषयूथम् अपि आसीत् । (तस्य/तस्मिन्)
- (ग)…………………अहनि स मेषः महानसं प्रविशति । (अन्यस्मिन्/पूर्वस्मिन्)
- (घ)……………….. क्षितौ प्रलुठतः तृणेषु अग्निज्वालाः समुत्थिताः। (तस्याः तस्य)
- (ङ)………………..भयत्रस्ताः कपयः अचिन्तयन्।(सर्वाः/सर्वे)
उत्तर….
- (क)….कस्मिंश्चित्…….. नगरे चन्द्रः भूपतिः प्रतिवसति स्म
- (ख)…….तस्मिन्………..एव राजगृहे मेषयूथम् अपि आसीत् ।
- (ग)……..अन्यस्मिन्………….अहनि स मेषः महानसं प्रविशति ।
- (घ)…….. तस्य.……….. क्षितौ प्रलुठतः तृणेषु अग्निज्वालाः समुत्थिताः।
- (ङ)……सर्वे…………..भयत्रस्ताः कपयः अचिन्तयन्।
7…घटनाक्रमानुसारम् अधोलिखितानि वाक्यानि पुनः लेखनीयानि-
- (क) सूपकारैः नित्यं ताडितं मेषं दृष्ट्वा वानरयूथपः वानरान् राजभवनं त्यक्तुम् अकथयत्।
- ( ख) राजा राजवैद्यम् आहूय अश्वरक्षायै न्यवेदयत्।
- (ग) भूपतेः चन्द्रस्य पुत्राः वानरान् भोज्यपदार्थैः पुष्टिं नयन्ति स्म।
- (घ) ज्वलन् स मेषः अश्वशालां प्रविष्टः । परिणामतः दग्धाः अश्वाः प्राणत्राणाय अधावन् ।
- (ङ) भयत्रस्ता कपयः गुरुजनोपदेशस्य अवधीरणातः पश्चात्तापं कृतवन्तः।
- (च) अन्यस्मिन् अहनि स मेषः सूपकारेण अर्धज्वलितकाष्ठेनं ताडितः।
- (छ) राजगृहे बालवाहनयोग्यः मेषः जिह्वालोलुपतया महानसं प्रविश्य भोजनं खादति स्म।
- (ज) रसनास्वादलुब्धाः मदोद्धताः मर्कटाः तद् राजभवनं त्यक्तुं न स्वीकृतवन्तः ।
उत्तर….
- (क) भूपतेः चन्द्रस्य पुत्राः वानरान् भोज्यपदार्थेः पुष्टिं नयन्ति स्म।
- (ख) राजगृहे बालवाहनयोग्यः मेषः जिह्वालोलुपतया महानसं प्रविश्य भोजनं खादति स्म।
- (ग) सूपकारैः नित्यं ताडितं मेषं दृष्ट्वा वानरयूथपः वानरान् राजभवनं त्यक्तुम् अकथयत् ।
- (घ) रसनास्वादलुब्धाः मदोद्धताः मर्कटाः तद् राजभवनं त्यक्तुं न स्वीकृतवन्तः ।
- (ङ) अन्यस्मिन् अहनि स मेषः सूपकारेण अर्धज्वलितकाष्ठेन ताडितः ।
- (च) ज्वलन् स मेषः अश्वशालां प्रविष्टः । परिणामतः दग्धाः अश्वाः प्राणत्राणाय अधावन् ।
- (छ) राजा राजवैद्यम् आहूय अश्वरक्षायै न्यवेदयत्।
- (ज) भयत्रस्ताः कपयः गुरुजनोपदेशस्य अवधीरणातः पश्चात्तापं कृतवन्तः ।
- अधः समस्तपदानां विग्रहाः दत्ताः । उदाहरणम् अनुसृत्य समस्तपदानि लिखत-
विग्रहाः………….समस्तपदानि
- (क) मेषाणां मध्ये………..मेषमध्ये………..षष्ठीतत्पुरुषः
- (ख) वानराणां हिताय
- (ग) प्राणानां त्राणाय
- (घ) कपीनां मेदसा
- (ङ) राज्ञः आदेशम्
- (च) जिह्वायाः लोलुपतया
- (छ) अश्वानां नाशः
- (ज) यूथस्य पतिः
उत्तर….
विग्रहाः | समस्तपदानि | षष्ठीतत्पुरुषः |
मेषाणां मध्ये.. | मेषमध्ये | षष्ठीतत्पुरुषः |
वानराणां हिताय | वानरहिताय | षष्ठीतत्पुरुषः |
प्राणानां त्राणाय | प्राणत्राणाय | षष्ठीतत्पुरुषः |
कपीनां मेदसा | कपिमेदसा | षष्ठीतत्पुरुषः |
राज्ञः आदेशम् | राजादेशम् | षष्ठीतत्पुरुषः |
जिह्वायाः लोलुपतया | जिह्वालोलुपतया | षष्ठीतत्पुरुषः |
अश्वानां नाशः | अश्वनाशः | षष्ठीतत्पुरुषः |
यूथस्य पतिः | यूथपतिः | षष्ठीतत्पुरुष |
- अधः मञ्जूषायां प्रत्येकशब्दस्य त्रीणि समानार्थकानि पदानि दत्तानि तानि चित्राणां समक्षं लिखत-
[अग्निः, वानरः, घोटकः, भूपतिः, सूपकारः, कपिः, राजा, वह्निः, अश्वः, हयः, मर्कटः, नृपः, अनलः]



1.अग्निः, 2. बह्निः,3. अनलः


1 घोटकः , 2. अश्वः 3. हयः
10..अधोलिखितानां पङ्क्तीनाम् शुद्धं भावार्थं (√) चिह्नेन चिह्नीक्रियताम् –
(क) ‘एतेषां कलहो न वानराणां हिताय’ अर्थात्
- (i) मेषस्य सूपकारैः सह दैनन्दिनः कलहः वानराणां विनाशकारणं भविष्यति ।
- (ii) एतेषां वानराणां पारस्परिकः विवादः जनानां हिताय न अस्ति।
- (iii) वानरेभ्यः हितकरम् एतत् यत् ते जनैः सह कलहं न कुर्युः।
उत्तर— (i) मेषस्य सूपकारैः सह दैनन्दिनः कलहः वानराणां विनाशकारणं भविष्यति।
(ख) तद्गृहं जीवितं वाञ्छन् दूरतः परिवर्जयेत् अर्थात्…
- (i) यस्मिन् गृहे महान् कोलाहलः वर्तते, धनम् इच्छन् नरः तस्मात् दूरे गृहनिर्माणं कुर्यात्।
- (ii) यत्र गृहे नित्यं सुखमयं जीवनम् अस्ति, तद्गृहं दूरतः अपि न परिवर्जितव्यम्, तत्रैव वस्तव्यम् ।
- (iii) यस्मिन् गृहे नित्यं विवादः भवति, नरः सुखेन जीवितुम् तत् गृहं कदापि न प्रविशेत्, तद् दूरतः एव परिवर्जयेत् ।
उत्तर….(iii) यस्मिन् गृहे नित्यं विवादः भवति, नरः सुखेन जीवितुम् तत् गृहं कदापि न प्रविशेत्, तद् दूरतः एव परिवर्जयेत् ।
(ग) ‘रसनास्वादलुब्धाः यूयम् अस्य सुखस्य कुपरिणामं न जानीथ’ अर्थात्
- (i) जिह्वास्वादलोभेन मेषः महानसप्रवेशस्य दुष्परिणामं न जानाति, अतः अवश्यमेव दण्डं प्राप्स्यति।
- (ii) यूयम् सर्वे वानराः जिह्वास्वादवशाः लोलुपाः, अतः अस्य क्षणिकसुखस्य दुष्परिणामं न अवगच्छथ यत्अनेन युष्माकं विनाशः भविष्यति
- (iii) रसनास्वादेन लुब्धाः जनाः लोभस्य दुरन्तं न जानन्ति । तेषाम् लोभवृत्तिः तेभ्यः विनाशकारिणी भविष्यति।
उत्तर……(ii) यूयम् सर्वे वानराः जिह्वास्वादवशाः लोलुपाः, अतः अस्य क्षणिकसुखस्य दुष्परिणामं न अवगच्छथ यत् अनेन युष्माकं विनाशः भविष्यति ।
(घ) हा हन्त ! वयम् । अवधीरिताः अस्माभिः गुरुजनोपदेशाः अर्थात्.
- (i) घोटकाः चिन्तयन्ति ‘अस्माभिः स्वस्वामिनः आज्ञापालनं न कृतम् अतः वयं दग्धाः।’
- (ii) सूपकाराः दुःखिनः भवन्ति ‘स्वराजादेशस्य पालनं न कृतम् अस्माभिः अतः वयं दण्डिताः भविष्यामः।’
- (iii) वानराः पश्चात्तापं कुर्वन्ति- ‘स्वगुरुजनस्य यूथपतेः उपदेशानाम् अस्माभिः अवहेलना कृता अतः वयं विनाशोन्मुखाः ।’
उत्तर….. (iii) वानराः पश्चात्तापं कुर्वन्ति— ‘स्वगुरुजनस्य यूथपतेः उपदेशानाम् अस्माभिः अवहेलना कृता अतः वयं विनाशोन्मुखाः।’
- अधोलिखितपङ्किषु स्थूलाक्षरपदानाम् प्रसङ्गानुसारं शुद्धम् अर्थ चिनुत-
(क) मेषः महानसं प्रविश्य यत् पश्यति तद् भक्षयति ।
- (i) हयशालाम्
- (ii) मन्दिरम्
- (iii) पाकशालाम्
(ख) ‘कलहान्तानि हर्म्याणि कुवाक्यान्तं च सौहृदम्।’
- (i) राजभवनानि
- (ii) उद्यानानि
- (iii) मन्दिराणि
(ग) ‘अन्यस्मिन् अहनि महानसं प्रविष्टः मेषः सूपकारेण ताडितः।’
- (i) रात्रौ
- (ii) मार्गे
- (iii) दिवसे
(घ) ‘तस्य क्षितौ प्रलुठतः तृणेषु वह्निज्वालाः समुत्थिताः।’
- (i) मार्गे
- (ii) भूमौ
- (iii) पाकशालाम्
(ङ) ‘सपदि उपायः क्रियताम्।’
- (i) एकपदेन
- (ii) पादेन सह
- (iii) झटिति
उत्तर—— (क) पाकशालाम्,(ख)राजभवनानि , ( ग) दिवसे , (घ) भूमौ ,(ङ) झटिति
- रेखाङ्कितपदानां समस्तपदं विग्रहं वा लिखत-
(क) कस्मिंश्चित् नगरे चन्द्रो नाम भूपतिः प्रतिवसति स्म।
(ख) राजपुत्राः वानरक्रीडारताः वानराणां यूथः, तम् नित्यमेव पुष्टि नयन्ति स्म।
(ग) तेषां मेषाणां मध्ये एकः मेषः जिह्वालोलुपः आसीत्।
(घ) एकः मेषः जिह्रालोलुपतया महानसं प्रविशति स्म।
(ङ) एतद् राज्ञः भवनं परित्यज्य वनं गच्छामः।
(च) जाज्वल्यमानं शरीरं यस्य सः मेषः अश्वशालां प्रविश्ति।
उत्तर…..
- (क) भूमिं पालयति इति
- (ख) वानरयूथम्
- (ग) मेषमध्ये
- (घ) जिह्वायाः लोलुपता तया
- (ङ) राजभवनं
- जाज्वल्यमानशरीरः
रमणीया हि सृष्टिः एषा Sanskrit class 10